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में एकता प्रस्थापित करने के लिए अनेक प्रयल प्रारम्भ हुए । मुलुद्दीन पुस्ती धादि कुछ मुसलमान फकीरों में इस्लाम को भारतीयता के कांचे में डालने का प्रबल किया । जायसी से सूफी कवियों ने हिन्दी भाषा मे ग्रंथ लिखे और हिन्दी कवियों ने उर्दू भाषा में । निर्गुण और सगुण भक्ति प्रान्दोलन अधिक विकसित हुए।
पूर्वोत्तर भारत में स्वामी रामानन्द, और सन्त कबीर पंजाब में गुरुनानक, मध्यभारत में सन्त सुन्दरदास, महाराष्ट्र में शानदेव, नामदेव, तुकाराम और अनार थे। बंगाल में चैतन्यदेव, बिहार में विद्यापति ठाकुर, मुजरात में लोकोशाह और बुंदेलखंड में संत साये मीना ने जलन को गति प्रदान की । तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार उन्होंने समाज में व्याप्त भन्ध विश्वासों पोर कुरीतियों को दूर करने का भरपूर प्रयत्न किया । मूर्तिपूना, जाति-पाति और कर्मकान का अपनी-अपनी बोली में विरोध कर निर्गुण भक्ति का प्रचार किया तथा हिन्दू-मुस्लिम के बीच उत्पन्न खाई को पाटकर नया सांस्कृतिक संरचना में सराहनीय योगदान दिया।
मध्यकाल की उपयुक्त सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में जैन साहित्य और संस्कृति का क्षेत्र प्रप्रभावित नहीं रह सका । प्राचार्यों ने समय और प्रांवश्यकता के अनुसार अपनी सीमा के भीतर ही उसमें परिवर्तन-परिवर्धन किये, साहित्य की नयी विषायें प्रारम्भ की और प्राचीन विधाओं को विकसित किया। परमार्थ प्राप्ति के लिए वै सगुरण पोर निर्गुण भक्ति के माध्यम से रहस्य भावना को प्रांचल में बांधकर साहित्य के क्षेत्र में उतरे । जिनोदयसूरि बनारसीदास, मैया भगवतीदास, मानन्दधन, विनोदीलाल, बानतसंच, लक्ष्मीदास, पाण्डे लालचंद, दौलतराम, जिनसमुद्रहरि, जिनहर्ष-श्रादि शताधिक कपि इस क्षेत्र के जावस्यमान नक्षत्र रहे हैं जिन्होंने अपनी चिरन्तन जीवन हतियों में अध्यात्मरस को बड़े प्रभावक ढंग से प्रस्तुत किया है।
प्राधिकाल से मध्यकाल तक की इस यात्रा में हिन्दी जैन साहित्यकारों ने अनेक पड़ाव पायें, उन्हें सब किया पर फिर आगे चल पड़े। उनकी पति कहीं रुकी नहीं । साहित्य सम्पनों की प्रविरल धारा में उनका प्रध्यात्म सीकर सर्वच रहस्वभावना में मालाविस रहा है। इसी बाला में उन्होंने मई-माई मिलानों का सृजन किया, भाषा का विकास किया जिन्हें उत्तरकालीन सत्री ऋषियों ने प्रार स्वीकारा। मह तव्याने कृष्ट होता समा जागिा।
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