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बैन धर्म मूलतः वर्ण पार जाति पर विश्वास नहीं करता । उसको वृष्टि व्यक्ति के स्वयं के कर्म उसके सुख दुःख के उत्तरदायी होते हैं। ईश्वर जगत का कर्ता, हर्ता, धर्ता, नहीं; वह तो मात्र अधिक से अधिक मार्गदर्शक का काम कर सकता है। इसलिए वैदिक संस्कृति के विपरीत श्रमण संस्कृति में वर्णव्यवस्था "जन्मना" न मानकर 'कर्मणा' मानी गई है । परन्तु नवम् शती में जैनाचायें जिनसेन ने वैदिक व्यवस्था में अन्य सामाजिक किंवा धार्मिक संकल्पों का जैनीकरण करके जैन धर्म और संस्कृति को वैविक धर्म और संस्कृति के साथ लाकर खड़ा कर दिया । तत्कालीन परिस्थितियों के संदर्भ में प्रस्तुत की गई इस व्यवस्था ने काफी लोकप्रियता प्राप्त कर ली। लगभग सौ वर्षों के बाद प्राचार्य सोमवेव ने उसके विरोध करने का साहस किया पर अन्तत: उन्हें जिनसेन के स्वर में ही अपना स्वा मिला देना पड़ा। वाद के जैनचार्यों ने जिनसेन और सोमदेव के द्वारा मान्य वर्णव्यवस्था को सहर्ष स्वीकार कर लिया। भट्टारक सम्प्रदाय में विशेष प्रगति हुई। प्राचार का परिपालन वहां कम होने लगा ओर बाह्य क्रियाकाण्ड बढ़ने लगा।
11-12 वीं शती से वैदिक और जैन समाज व्यवस्था में कोई बहुत अन्तर नहीं रहा । बौद्ध धर्म तो समाप्तप्राय हो गया पर जैन और बनेतर सम्प्रदाय बहलती हवा में फलते-फूलते रहे। अनेक प्रकार के समाज सुधारक अान्दोलन भी हुए। कविबर बनारसीदास की प्रध्यात्मिक शैली को भी हम इसी श्रेणी में रख सकते हैं ।
___इस सामाजिक पृष्ठभूमि में हिन्दी जैन साहित्य का निर्माण हुआ। कविवर बनारसीदास, मैया भगवतीदास. यानतराग जैसे अध्यात्मरसिक कवियों ने साहित्य साधना की। जैन समाज में प्रचलित अन्धविश्वामों और रुढ़ियों को उन्होंने समाप्त करने का प्रयत्म किया। ज्ञान का प्रचार किया और प्राचार से उसका समन्वय किया।
इधर जब वैष्णव सम्प्रदाय सामने पाया तो भक्ति और अहिंसा की पृष्फ. भूमि में उसका आचार-विचार बना। जैन धर्म का यह विशेष प्रभाव था। पूजा स्वाध्याय, योगसाधना मादि नैमित्तिक क्रियायें बनी। जैन-बौद्धों के चौबीस तीर्थंकरों के अनुसरण में उन्होंने चौबीस अवतार माने जिनमें ऋषभदेव और बुद्ध को दी सम्मिलित कर लिया गया । धीरे-धीरे वैष्णवी मूर्तियाँ भी बनने लगीं । वस्त्राभूषहीं से उनकी सज्जा भी होने लगी। भक्ति भाव के कारण भक्त राजे-महाराजों में मूर्तियों और मन्दिरों को सोने चान्दी से ढक दिया । फलतः भाक्रमणकारियों की लोलुपी प्रोखों से वे न बच सके। शंकर के मायावाद, रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैतवाद, माधवाचार्य के द्वैतवाद और निम्बार्क के देवाद्ववबाद ने वेदान्त की सूत्रावलि से अध्यात्मवाद के बढ़ते हुए स्वर कुछ धीमे पड़ गये। बाद में हिन्दू और मुसलमानों