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प्रवैत वैवान्त के प्रधान प्रतिपादक माने जाते हैं। उन्होंने ज्ञान को अधिक महत्व दिया । मध्यकालीन प्रायः सभी सन्त शंकर और रामानुज दोनों से प्रभावित हुए हैं। मध्यकालीन सन्तों पर रामानुज की भक्ति और प्रपत्ति का बहुत अधिक प्रभाव पड़ा है। माध्वाचार्य, निम्बार्काचार्य और वल्लभाचार्य की छाप सगुणोपासक कवियों और भक्तों पर दिखाई पड़ती है। इन प्राचार्यों के क्रमशः द्वैत, द्वैताद्वैत और शुद्धाद्वैत सिद्धान्तों ने हिन्दी साहित्य को काफी प्रभावित किया है।
जैनधर्म भी इन परिस्थितियों में अप्रभावित नहीं रह सका । उसके भक्ति आन्दोलन में और भी तीव्रता माई । निष्कल और सकल रूप, निर्गुण और सगुणधारा समान रूप से प्रवाहित हुई। प्राचीन जैन प्राचार्यों के अनुरूप जैन साधकों ने प्राध्यात्मिक किंवा रहस्य साधना की। उत्तरकाल में ये वैदिक संस्कृति से कुछ रूप लेकर साधना-क्षेत्र में उतरे।
3. सामाजिक पृष्ठभूमि मध्यकाल का समाज वर्ण व्यवस्था की कठोर भित्ति पर खड़ा था। उच्च वर्ण से निम्न वर्ण की पोर जाने की तो व्यवस्था थी पर निम्न वर्ण से उच्च वर्ण की ओर नहीं । शब्द मात्र जाति का सूचक नहीं रहा बल्कि उसे निम्न कोटि के व्यक्ति का प्रतीक माना जाने लगा। इस काल की स्मृतियों में सामाजिक नियमों का विधान किया गया । मुस्लिमों के आक्रमणों के कारण सामाजिक कट्टरता और अधिक बढ़ती गई। इसके बावजूद भारतीयता के नाते किसी में उसका विरोध करने की अमाा नहीं रही । इस्लाम में जातिगत विभिन्नता होते हुए भी सामाजिक व्यवस्था से प्रसन्तुष्ट व्यक्तियों के लिए इस्लाम का सहारा मिल गया।
इस समय धार्मिक स्वतंत्रता पर्याप्त रूप से दिखाई देती है । कोई भी व्यक्ति किसी धर्म को प्रगीकार करने के लिए स्वतन्त्र था। इसके बावजूद स्मृतिगत वर्ण व्यवस्था को अधिक रूप से स्वीकार किया गया। अनुलोम, प्रतिलोम विवाह भी होते थे। सती प्रथा भी उस समय प्रचलित थी। बहपत्नीत्व प्रथा होने से नारी की स्थिति दयनीय थी। उच्च कुलों में परदा प्रथा भी थी। कृषि कर्म प्रमुख व्यवसाय था और विशेषकर शूद्र वर्ग उसे किया करता था। सामाजिक रूढ़ियां विश्रृंखलित हो रही थीं। ज्ञानाश्रयी और प्रेमाश्रयी संतों ने भी सामाजिक बंधन तोड़नेतुड़ाने का साहस किया। इतने पर भी समाज स्मृति वर्णाश्रम व्यवस्था को अधिक उपयुक्त मानता था। इस समय स्वयंवर प्रथा भी प्रचलित थी, विशेषतः क्षत्रियों में 1 गंधर्व तपा राक्षस विवाहों को विहित-सा माना जाने लगा था।
1. कबीर की विचारधारा, पृ. 74-84.