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1. यौगिक साधनों और ध्यानयोग प्रक्रिया के माध्यम से परमात्मा का ज्ञान प्राप्त होना अथवा ब्रह्म का साक्षात्कार होना ।
2. ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाने पर सम्पूर्ण क्लेशों का दूर होना ।
3. क्लेशक्षय पोने पर जन्म-मृत्यु से मुक्त होना, पौर
4. जन्म मृत्यु से मुक्त होने पर कैवल्यावस्था प्राप्त होना ।
वेद और उपनिषद् के बाद गीता, भागवत् पुराण, शाण्डिल्य भक्ति सूत्र मोर नारद भक्ति सूत्र वैदिक रहस्यवादी प्रवृत्तियों के विकासात्मक सोपान कहे जा सकते हैं । 'तस्वमसि, सोsहं, श्रहं ब्रह्मास्मि' जैसे उपनिषद् के वाक्यों में प्रभिव्यक्त विचारधारा उत्तरकालीन संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और हिन्दी साहित्य को प्रभावित करती हुई मागे बढ़ती है। सिद्ध सम्प्रदाय भौर नाथ सम्प्रदाय का रहस्यवाद यद्यपि अस्पष्टसा रहा है पर उसका प्रभाव भक्तिकालीन कवि कबीर, दादू श्रीर जायसी पर पड़े बिना न रहा । ये कवि निर्गुणवादी भक्त रहे । सगुणवादी भक्ति कवियों में मीरा, सूर और तुलसी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनमें मीरा और सन्त कवियों की रहस्य भावना में कोई विशेष प्रन्तर नहीं । तुलसी की रहस्य भावना में दाम्पत्य भावना उतनी गहराई तक नहीं पहुंच पाई जितनी जायसी के कवि में मिलती है । रीतिकाल में प्राकर यह रहस्य भावना शुष्क-सी हो गई। आधुनिक काल में प्रसाद, पन्त निराला और महादेवी जैसी कवियों में अवश्य वह प्रस्फुटित होती हुई दिखाई देती है जिसे आलोचकों ने रहस्यवाद कहा है ।
ata रहस्य भावना किया रहस्यवाद :
साधारणतः यह माना जाता है कि रहस्यवाद वहीं हो सकता है जहां ईश्वर की मान्यता है । पर यह मत श्रमण संस्कृति के साथ नहीं बैठ सकता । जैन और बौद्ध धर्म वेद और ईश्वर को नहीं मानते । वैदिक संस्कृति की कुछ शाखाओंों ने भी इस संदर्भ में प्रश्न चिन्ह खड़े किये है। इसके बावजूद वहां हम रहस्य भावना पर्याप्त रूप में पाते हैं । अतः उपर्युक्त मत को व्याप्ति के रूप में
स्वीकार नहीं किया जा
सकता ।
बौद्ध दर्शन में प्रात्मा के अस्तित्व को अव्याकृत से लेकर निरात्मवाद तक चलना पड़ा । ईश्वर को भी वहां सृष्टि का कर्ता, हर्ता मौर धता नहीं माना गया । फिर भी पुनर्जन्म प्रथवा संसरण से मुक्त होने के लिए व्यक्ति को सम्यग्ज्ञान होना श्रावश्यक है । उसकी प्राप्ति के लिए प्रज्ञा, शील
1. बौद्ध संस्कृति का इतिहास- डॉ. भार्गचन्द्र जैन भास्कर, पृ. 83-92.
चतुरायं सत्य का औौर समाधि ये