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तीन साधन दिये गये है। इतर साधनों के माध्यम से वित (मामा) अन्ततोगत्वा दुवस्व की प्राप्ति कर लेता है। पाने चलकर महायानी साधना अपेक्षाकृत अधिक गुष बन गई। उसने हट्योग पोर तांत्रिक साधना को भी स्वीकार कर लिया। महायान का शून्यवाद पूर्ण रहस्यवादी-सा बन जाता है । कबीर मादि कवियों पर भी बौख धर्म का प्रभाव दिखाई देता है । समूची बौद्ध साधना का पर्यालोचन करने. पर यह स्पष्ट हो जाता है कि भात्मा, चित्त अथवा संस्कार को बुद्धत्व में मिला देने की साधना प्रक्रिया के रूप में रहस्य भावना बौद्ध साधकों में भली भांति रही है। जैन रहस्य भावना :
साधारणतः जैन धर्म से रहस्य भावना अथवा रहस्यवाद का सम्बन्ध स्था.पित करने पर उसके सामने प्रास्तिक-नास्तिक होने का प्रश्न खड़ा हो जाता है। परिपूर्ण जानकारी के बिना जैन धर्म को कुछ विद्वानों ने नास्तिक दर्शनों की श्रेणी में बैठा दिया है । यह प्राश्चर्य का विषय है । इसी कल्पना पर यह मन्तव्य व्यक्त किया जाता है कि जैन धर्म रहस्यवादी हो नहीं सकता क्योंकि वह वेद और ईश्वर को स्वीकार नहीं करता । यही मूल में भूल है ।
प्राचीन काल में जब वैदिक संस्कृति का प्राबल्य था, उस समय नास्तिक की परिभाषा वेद-निन्दक के रूप में निश्चित कर दी गई। परिभाषा के इस निर्धारण में तत्कालीन परिस्थिति का विशेष हाथ था। वेदनिन्दक अथवा ईश्वर सृष्टि का कर्ता, हर्ता, धर्ता के रूप में स्वीकार न करने वाले सम्प्रदायों में प्रमुख सम्प्रदाय थे जैन और बौद्ध । इसलिए उनको नास्तिक कह दिया । इतना ही नहीं, निरीश्वरवादी मीमांसक और सांख्य जैसे वैदिक भी नास्तिक कहे जाने लगे।
सिद्धान्ततः नास्तिक की यह परिभाषा निन्तान्त प्रसंगत है। नास्तिक और पास्तिक की परिभाषा वस्तुतः पारलौकिक अस्तित्व की स्वीकृति और भस्वीकृति पर निर्भर करती है। मात्मा और पारलोक के अस्तित्व को स्वीकार करने वाला मास्तिक
और उसे अस्वीकार करने वाला नास्तिक कहा जाना चाहिए था। पाणिनिसूत्र 'अस्ति नास्ति दिष्टं मतिः' (4-4-60) से भी यह बात पुष्ट हो जाती है । जैन संस्कृति के अनुसार प्रात्मा अपनी विशुद्धतम अवस्था में स्वयं ही परमात्मा का रूप ग्रहण कर लेती है । दैहिक और मानसिक विकारों से वह दूर होकर परमपद को प्राप्त कर लेती है। इस प्रकार यहां स्वर्ग, नरक, मोक्ष प्रादि की व्यवस्था स्वयं के कर्मों पर भाषारित है। अत: जैन दर्शन की गणना नास्तिक दर्शनों में करना नितान्त मसंगत है।
जैन रहस्यभावना भी श्रमण संस्कृति के अन्तर्गत पाती है। बौद्ध साधनाने जैन साधना से भी बहुत कुछ ग्रहण किया है। जैन साधकों ने मात्मा को केन्द्र के रूप में स्वीकार किया है। यही मात्मा जब तक संसार में जन्म-मरण का चक्कर