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लगाता है, उसे विशुद्ध प्रथवा विमुक्त कहा जाता है । मात्मा की इसी विशुद्धावस्था को परमात्मा कहा गया है। परमात्म पद की प्राप्ति स्व-पर विवेक रूप भेदविज्ञान के होने पर ही होती है । भेदविज्ञान की प्राप्ति मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान प्रौर मिथ्याचारित्र के स्थान पर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के समन्वित श्राचरण से हो पाती है। इस प्रकार श्रात्मा द्वारा परमात्मपद की प्राप्ति ही जंन रहस्यभावना की अभिव्यक्ति है । प्रागे के अध्यायों में हम इसी का विश्लेषण करेंगे ।
यहां यह ध्यातव्य है कि रहस्यभावना माने के लिए स्वानुभूति का होना souravre है। अनुभूति का अर्थ है अनुभव । बनारसीदास ने शुद्ध निश्चयनय, शुद्ध oraहारनय और प्रात्मानुभव को मुक्ति का मार्ग बताया है। उन्होंने अनुभव का अर्थ बताते हुए कहा है कि प्रात्मपदार्थ का विचार प्रौर ध्यान करने से चित को जो शान्ति मिलती है तथा प्रात्मिक रस का आस्वादन करने से जो श्रानन्द मिलता है, उसी को अनुभव कहा जाता है ।
वस्तु विचारत घ्याव तें, मन पार्व विश्राम । रसस्वादन रस ऊपजं, अनुभौ याको नाम ॥
कवि बनारसीदास ने इस अनुभव को चिन्तामणिरत्न, शान्ति रस का कूर, मुक्ति का मार्ग और मुक्ति का स्वरूप माना है । इसी का विश्लेषण करते हुए श्रागे उन्होने कहा है कि अनुभव के रस को जगत के ज्ञानी लोग रसायन कहते हैं । इसका श्रानन्द कामधेनु चित्रावेली के समान । इसका स्वाद पंचामृत भोजन के समान है । यह कर्मो का क्षय करता है और परमपद से प्रेम जोड़ता है। इसके समान अन्य धर्म नही है ।
अनुभौ चिन्तामरिण रतन, अनुभव है रसकृप ।
अनुभौ मारग मोख को, अनुभव मोख स्वरूप ॥ 18 ॥
अनुभौ के रस सो रसायन कहत जग । अनुभौ श्रभ्यासयहु तीरथ की ठौर है ॥ अनुभी की जो रसा कहावे सोई पोरसा सु । अनुभौ अघोरसासों ऊरध की दौर है । अभी की केलि यहै, कामधेनु चित्रावेली | अनुभी को स्वाद पंच अमृत को कौर है ।
अनुभो करम तोरं परम सौ प्रीति जोरे । प्रनुभो समान न घरम कौऊ और है ॥ 19 ॥ *
1.
1. वही, 18-19 ॥
नाटक समयसार, 17.