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मचन्द पाने में इस मनुवृति को प्रारम ब्रह्म की अनुभूति कहकर उसे दिव्योष की प्राप्ति का साधन बताया है। वतन इसी से अनन्त दर्शन-शान-सुखवीर्य प्राप्त करता है और स्वतः उसका सामात्कारफर 'चिदानन्द चैतन्य का रसपान करता है
अनुभी अभ्यास में निवास सुष चेतन को, मनुभी सरूप सुध बोष को प्रकाश है । मनुभो अपार उपरहत अनन्त ज्ञान; अनुभौ भनीत त्याग ज्ञान सुखरास है। अनुभी मपार सार प्राप ही को पाप बान, पाप ही में व्याप्त दीस जामें जड़ नास है । अनुभौ प्ररूप है सरूप चिदानन्द चन्द,
अनुभो प्रतीत पाठ कर्म स्यौ प्रकास है ॥-12 जिस प्रकार वैदिक संस्कृति में ब्रह्मवाद अथवा प्रात्मवाद को अध्यात्मनिष्ठ माना है उसी प्रकार जन संस्कृति में भी रहस्यवाद को आध्यात्मवाद के रूप में स्वीकार किया गया है। पं. माशाधर ने अपने योग विषयक अन्य को 'अध्यात्मरहस्य' उल्लिखित किया है। इससे यह स्पष्ट है कि जैनाचार्य अध्यात्म को रहस्य मानते थे । अतः माज के रहस्यवाद को अध्यात्मवाद कहा जा सकता हैं।
बनारसीदास ने इस अध्यात्म या रहस्य की अभिव्यक्ति के माध्यम को अध्यात्म शैली नाम दिया । तीर्थकर, चक्रवर्ती भादि जैसे साधकों ने इसी का अनुभव किया है और इसी को अपनी अभिव्यक्ति का साधन अपनाया है
इस ही सुरस के सषादी भये ते तो सुनी,
तीर्थकर चक्रवर्ती शैली अध्यात्म की । बल वासुदेव प्रति वासुदेव विधापर,
चारण मुनिन्द्र इन्द्र छेदी बुद्धि भ्रम की ॥ अध्यात्मवाद का तात्पर्य है पात्म चिन्तन । प्रात्मा के दो भाव है-भागमरूप और मध्यात्मरूप । मागम का तात्पर्य है वस्तु का स्वभाव और अध्यात्म का तात्पर्य प्रात्मा का अधिकार अर्थात् प्रारम द्रव्य । संसार में जीव के दो भाव विद्यमान रहते हैं-पागम रूप कर्म पद्धति और अध्यात्मरूप शुद्धचेतन पदति । कर्म पद्धति में द्रव्यरूप
और भावरूप कर्म पाते हैं। द्रव्यरूप कर्म पुद्गल परिणाम कहलाते हैं और भावरूप कर्म पुद्गलाकार मात्मा की अशुद्ध परिणति परिणाम कहलाते हैं । शुद्ध चेतना पति का तात्पर्य है शुखात्म परिणाम वह भी द्रव्य रूप और भाव रूप दो प्रकार
1. अध्यात्मसर्वया, पृ. 1. 2. बनारसी विलास, ज्ञानवाणी, पृ. 8.