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बखत राम साह भी इसी तरह -- "दीनानाथ दया मो पे कीजी" कहकर अपने treat म मर पातिक बताते हैं । बुधजन भी चेरा' बनकर भ्रष्टकर्मों को नष्ट
करना चाहते हैं --
साधक भक्त कवि की समता और एकता की प्रतीति के सन्दर्भ में मैं पहले विस्तार से लिख चुकी हूँ' । 'समता भाव भये हैं मेरे प्रांन भाव सब त्यागोजी' जैसे भाव उसके मन में उदित होते हैं और वह एकाकारता की अनुभूति करने लगता है। वह प्रद रागात्मक सम्बन्ध भी स्थापित कर संसार सागर से पार करने की प्रार्थना करता है
1.
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4.
तुम माता तुम तात तुम ही परम धरणीजी ।
तुम जग सांचा देव तुम सम तुम प्रभु दीनदयालु मुन्द दुष लीजै मोहि उबारि मैं तुम सरण मही जी ॥2॥ संसार अनंतन ही तुम ध्यान घरो जी |
तुम दरसन बिन देव दुरगति मांहि सत्योजी ॥3॥ 4
भक्त कवि आराध्य के रूप पर श्रासक्त होकर उसके दर्शन की प्राकांक्षा लिये रहता है । सीमान्वर स्वामी के स्तवन में भेरुतन्द उपाध्याय ने प्रभु के रूप का बड़ा सुन्दर चित्रांकन किया है जिसमें उपमान- उपमेय का स्वाभाविक संयोजन हुआ है ।" भट्टारक ज्ञानभूषण (वि. सं. 1572) ने तीर्थकर ऋषभ की बाल्यावस्था का का चित्रण करते समय उनके मुख को पूर्णमासी के समान बताया और हाथों को कल्पवृक्ष की उपमा दी। उनके काव्य में बालक का चित्र प्रत्यन्त स्वाभाविक ढंग से उभरा हुआ है जिसमे अनेक उपमानों का प्रयोग है ।"
6.
श्रौर नहीं जी ॥1 ॥ दूरि करो जी ।
वही, पृ. 163.
बुधजनविलास, पद 52, पृ. 29.
हिन्दी पद संग्रह, नवलराम, पृ. 182.
कर्मघटावलि, कनक कीर्ति, बधीचन्द दि जैन मन्दिर, जयपुर में सुरक्षित हस्तलिखित प्रति, गुटका नं. 108.
5. सीमान्धर स्वामी स्तवन, 9 जैन स्तोत्र संदोह प्रथम भाग, अहमदाबाद,
1932, q. 340-345.
प्राहे मुख जिस पुनिम चन्द नरिदनमित पद पीठ । त्रिभुवन भवन मंभारि सरीखउ कोई न दीठ ॥
आहे कर सुरतरु वरं शाख समान सजानु प्रमाण । तेह सरीखउ लकड़ी भूप सरूपहिं जांरिण ||
दीश्वर फागु, 144, 146, श्रमेरशास्त्र भण्डार, जयपुर में सुरक्षित हस्त
लिखित प्रति क्रमसंख्या, 95.
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