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are अनाथनि फू कछु दीजे ॥ विरद संभारी धारी हठ मन तें, काहे स जग जस लीजे ॥11॥ तुम्ही निवाज कियो हूं मानव गुण अवगुण न गणीजे । व्याल वाल प्रतिपाल सविषतर, सौ नहीं प्राप हणीजे ॥12॥ में तो सोई जो ता दीन हूतो जा दिन को न ईजे । जो तुम जानत और भयो है बाधि बाजार बेचीजे ||3||
मेरे तो जीवन धन सब तुमहि नाच तिहारे जीजे । कहत कुमुदचन्द चरण शरण मोहि, जे भावे सो कीजे ॥ 4 |
कविवर बनारसीदास ने माराध्य के प्रति लघुता व्यक्त करते हुए उसके स्वरूप को भागम और प्रवाह माना है उसके स्वरूप का वर्णन करना उसी प्रकार कठिन है जिस प्रकार उलूकपोत रवि किरण के उद्योत का वर्णन नहीं कर सकता और बालक अपनी बाहों से सागर पार नहीं कर सकता ।
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प्रभुस्वरूव प्रति भगम प्रथाह । क्यों हमसे इह होय निवाह । उलूको पोत । कहि न सके रवि किरन उदोत ||4|| तुम प्रसंग निर्मलगुणखानि । में मतिहीन कहो निजबानि ।
जिन
बालक निजबांह पसार । सागर परिमित कहै विचार 116112
जगतराम प्रभु का अनुग्रह पाने के लिए हाथ जोडकर बैठे हैं और प्रवसुणों को अनदेखा करने की प्रार्थना कर रहे हैं। कवि का यह 'चेरा' का स्वरूप दृष्टव्य है
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तुम साहित्र में चेरा, मेरा प्रभु जी हो ॥
चूक चाकरी मो वेरा की, साहिब सी जिन मेरा ॥1॥ टहल यथाविधि बन नहीं प्रावे, करम रहे कर बेरा । मेरो भवगुण इतनो ही लीजे, निशदिन सुमरन तेरा ॥2॥ करो धनुग्रह अब मुझ ऊपर मेरो अब उरभेरा । 'जगतराम' कह जोड़ वीनवं राखी चरणन नेरा || 3 || 3
वही, पृ. 15, रूपचन्द भी लघुमंगल में 'अद्भुत है प्रभु महिमा तेरी, वरनी न जाय प्रलिप मति मेरी' कहकर लघुता व्यक्त करते हैं । बनारसीविलास, कल्याण मन्दिर स्तोत्र, भाषानुवाद, पद्म 4 और 6 T. 124.
3. वही, पृ. 100.