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हो और मोह रूपी दावानल के लिए नीर हो । मेरी वेदना को दूर करो और कर्म-जंजीर से मुझे मुक्त करो
हमारी वीर हरो भव पीर ॥
मैं दु:ख तपित दयामृतसर तुम, लखि प्रायो तुम तोर । तुम परमेश मोखमगदर्शक, मोहदवानलचीर ॥1॥ तुम विनहेत जगत उपगारी शुद्ध चिदानन्द धीर । गनपतिज्ञान समुद्र न लंघे, तुम गुनसिन्धु गहीर ||2|| याद नहीं में विपति सही जो, घर घर अमित शरीर । तुम गुन चिंतत नशत तथा भव ज्यौ धन चलत समीर ||3|| कोटवार की अरज यही है, मैं दुःख सह अधीर । हरहु वेदना फन्द दौल की, कतर कर्म जंजीर ||4||
जगजीवन के पद भी बड़े हृदयहारी हैं । कवि अपने प्राराध्य से जन्म-मरण
का चक्कर दूर करने का निवेदन करता है और 'दीनबन्धु' जैसे विरद को निर्वाह करने की प्रार्थना करता है।" बुधजन भी प्रभु की महिमा को अच्छी तरह जानते हैं। वे उनके दर्शन मात्र से ही अपने राग-द्वेष को भूल जाते हैं -
प्रभु तेरी महिमा वरणी न जाई ॥
इन्द्रादिक सब तुम गुरण गावत, में कछु पार न पाई ॥ ॥ ॥ पटू द्रव्य मे गुण व्यापत जैते, एक समय में लखाई । ताकी कथनी विधि निषेधकर, द्वादस अंग सवाई | क्षायिक समकित तुम ढिग पावत श्रौर ठौर नहि पाई जिन पाई तिन भव तिथि गाही, ज्ञान की रीति बढ़ाई ॥3॥ मोसे अल्प बुधि तुम उपावत, श्रावक पदवी पाई । तुम ही तं प्रभिराम लखू निज राग दोष विसराई ॥14॥13
भक्त कवि श्राराध्य से अपने प्रापको अत्यन्त हीन समझता है और लघुता व्यक्त करते हुए दास्य भाव को प्रकट करता है। भ. कुमुदचन्द के भक्तिराग ने उन्हें अनाथ बना दिया और फलतः स्वयं को भगवान के चरण-शरण में छोड़ दिया ।
1.
दौलत जनपद संग्रह, कलकत्ता, पद 31, पृ. 19.
2. तेरहपन्थी मन्दिर, जयपुर, पद सग्रह 946. पत्र 90, हिन्दी जैन भक्त कवि
और काव्य पृ. 214.
3. हिन्दी पद संग्रह. 206.