________________
135
• - ५४८ मास बर्मास उपसि बासबन पासुक करत महारा हो।
भारत रौद्र लैश नहिं जिनके धर्म शुक्ल चित धारा हो ॥ ध्यानारद गूढ़ निज मातम शुद्ध उपयोग विचारा हो। ... माप तरहि पोरनि को तारहिं, भव जल सिन्धु प्रपारा हो। दौलत ऐसे जैन जतिन को निजप्रति धोक' हमारा हो ।
(दौलत विलास, पद 72) द्यानतराय को गुरु के समान पौर दूसरा कोई बाता दिखाई नहीं दिया। तदनुसार गुरु उस मन्धकार को नष्ट कर देता है जिसे सूर्य भी नष्ट नहीं कर पाता, मेघ के समान सभी पर समानभाव से निस्वार्थ होकर कृपा जल बरषाता है, नरक तिर्यंच आदि गतियों से जीवों को लाकर स्वर्ग-मोक्ष में पहुंचाता है । अतः त्रिभुवन में दीपक के समान प्रकाश करनेवाला गुरु ही है । वह संसार सायर से पार लगाने बाला जहाज है। विशुद्ध मन से उसके पद-पंकज का स्मरण करना चाहिए। कवि विषयवाना में पगे जीवों को देखकर सहानुभूतियों पूर्वक कह उठता है
जो तजै विषय की प्रासा, द्यानत पावै सिववासा ।
यह सतगुरु सीख बनाई काहूं विरल के जिय माई ॥ भूधरदास को भी श्रीगुरु के उपदेश अनुपम लगते है। इसलिए वे सम्बोधित कर कहते हैं- "सुन ज्ञानी प्राणी, श्रीगुरु सीख सयानी । गुरु की यह सीख रूप गंगा नदी भगवान महावीर रूपी हिमाचल से निकली, मोह-रूपी महापर्वत को भेदती हुई मागे बढ़ी, जग की जड़ता रूपी प्रातप को दूर करते हुए ज्ञान रूप महासागर में गिरी, सप्तभंगी रूपी तरगे उछली । उसको हमारा शतशः वन्दन । सद्गुरु की यह बापी प्रज्ञानान्धार को दूर करने वाली हैं।
गुरु समान दाता नहिं कोई।। भानु प्रकाश न नासत जाको, सो अंधियारा डारे खोई॥1॥ मेघ समान सबन 4 बरस, कछु इच्छा जाके नहि होई। नरक पशुगति प्रागमाहितं सुरग मुकत सुख थापं सोई ।। 2 ।। तीन लोक मंदिर में जानो, दीपकसम परकाशक लोई। दीपतलें अंधियारा भरयो है अन्तर बहिर विमल है जोई।।3।। तारन तरन जिहाज सुगुरु है, सब कुटुम्ब गेवं जगतोई। बानत निशिदिन निरमल मन में, राखो गुरु पद-पंकज दोई 11411
द्यानत पद संग्रह. पृ. 10. 2.. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 126-127, 133. 3. भूपर विलास, 7 पृ.4.