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योगी सद्गुरु के वचनामृत द्वारा संसारी जीवों को सचेत हो जाने के लिए प्रावाहन किया है
एतो दुःख संसार में, एतो सुख सब जान । इमि लखि भैया चेतिये, सुगुरुवचन उर धान ॥
मधुबिंदुक की चौपाई में उन्होंने अन्य रहस्यवादी सन्तों के समान गुरु के महत्व को स्वीकार किया है। उनका विश्वास है कि सद्गुरु के मार्गदर्शन के बिना जीव का कल्याण नहीं हो सकता, पर वीतरागी सद्गुरु भी प्रासानी से नहीं मिलता, पुत्र के उदय से ही ऐसा सद्गुरु मिलता है-
'सुग्रटा सोचं हिए मकार | ये गुरु सांधे तारनहार ॥ मैं शठ फिरयो करम वन माहिं। ऐसे गुरु कहुं पाए नाहि । प्रमो पुण्य उदय कुछ भयो । सांचे गुरु को दर्शन लयो ||
पांडे रूपचन्द गीत परमार्थी में आत्मा को सम्बोधते हुए सद्गुरु के महत्व को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि सद्गुरु प्रमृतमय तथा हितकारी वचनों से चेतन को समझाता है :--
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चेतन, अचरज मारी यह मेरे जिय प्राये | अमृत वचन हितकारी, सद्गुरु तुमहिं पढ़ाई । सद्गुरु तुमहिं पढ़ा चित दे, प्रारु तुमहू हो ज्ञानी । तब तुम न क्यों हू भ्राव, चेतन तत्व कहानी ॥
दौलतराम जैन गुरु का स्वरूप स्पष्ट करते हुए चितित दिखाई देते हैं कि उन्हें वैसा गुरु कब मिलेगा जो कंचन कांच में व निदक-वंदक में समताभावी हो, वीतरागी हो, दुर्धर तपस्वी हो, अपरिग्रही हो, संयमी हो। ऐसे ही गुरु भवसागर से पार करा सकते हैं
कब हौ मिल मोहि श्री गुरु मुनिवर करि हैं भवोदधि पारा हो । भोग उदास जोग जिन लीन्हों छाड़ि परिग्रह मारा हो । कंचन कांच बराबर जिनके, निदक-बंदक सारा हो । दुर्धर तप तपि सम्यक् निजघर मन वचन कर धारा हो । ग्रीषम गिरि हिम सरिता तीरे पावस तरुतर ठारा हो । करुणा मीन हीन त्रस थावर ईर्यापथ समारा हो ||
मधुविन्दुक की चौपाई, 58, ब्रह्मविलास, पृ. 130.
ब्रह्मविलास, पृ. 270.
गीत परमार्थी, हिन्दी जैन शक्ति काव्य और कवि, पृ. 171.