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बुधजन सत्गुरु की सीख को मान लेने का प्राग्रह करते है-"सुठिल्यौ जीव सुजान सीख गुरु हित की कही। मुल्यो अनन्ती बार गति-मति साता न लही। (बुधजन विलास, पद 99), गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान के प्याले से दुधजन सारे जंगलों से दूर हो गये :
गुरु ने पिलाया जो ज्ञान प्याला। यह बेखबरी परमावां की निजरस में मतवाला। यों तो छाक जात नहिं बिनहूं मिटि गये प्रान जंजाल । अद्भुत प्रानन्द मगन ध्यान में बुद्धजन हाल सम्हाला ॥
-~-बुधजन विलास, पद 77 समय सुन्दर की दशा गुरु के दर्शन करते ही बदल जाती है भौर पुण्य क्शा प्रकट हो जाती है-आज कू धन दिन मेरउ ।पुण्यदशा प्रगटी अब मेरी पेखतु गुरु मुख तेरउ ।। (ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, पृ. 129) साधुकीति तो गुरु दर्शन के बिना विहल से दिखाई देते हैं। इसलिए सखि से उनके आगमन का मार्ग पूछते हैं। उनकी व्याकुलता निर्गुण संतों की व्याकुलता से भी अधिक पवित्रता लिए हुए है (ऐतिहासिक जन काव्य संग्रह, पृ. 91.)।
वीर हिमाचल से निकसी, गुरु गौतम के मुखकुण्ड ढरी है । मोह महाचल भेद चली, जग की जड़ता तप दूर करी है। ज्ञान पयोनिधिमाहिं रुली, बहु भंग-तरंगनी सौं उछरी है। ता शुचि शारद गंगनदी प्रति, मैं अंजुरी निज सीस धरी है ।।
इस प्रकार सद्गुरु मौर उसकी दिव्य वाणी का महत्व रहस्य-साधना की प्राप्ति के लिए आवश्यक है । सद्गुरु के प्रसाद से ही सरस्वती ! और एकचित्तता की प्राप्ति होती है । ब्रह्म मिलन का मार्ग यही सुझाता है। परमात्मा से साक्षात्कार कराने में सद्गुरु का विशेष योगदान रहता है । माया का प्राच्छन्न प्रावरण उसी के उपदेश और सत्संगति से दूर हो पाता है । फलतः प्रात्मा विशुद्ध बन जाता है। उसी विशुद्ध प्रात्मा को पूज्यपाद ने निश्चय नय की दृष्टि से सद्गुरु कहा है।
1. जनशतक, 14-15, पृ. 6-7. 2. सिद्धान्त चौपाई, लावण्य समय, 1-2. 3. सारसिखामनरास, संवेग सुन्दर उपाध्याय, बड़ा मन्दिर, जयपुर की हस्त
लिखित प्रति नमत्यात्मात्मेव जन्म निर्वाणमेव च । गुरुरास्मात्मम स्तर स्मान्नान्यो स्ति परमार्थतः ॥751 समाधि तम्ब, 75.