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________________ 165 के परिग्रहों से दूर रहकर परिषह सहते हुए सप करने से परम पद प्राप्त होता है। साधक पात्मानुभव करने पर कहने लगता है हम लागे पातमराम स्रो। उसके मात्मा में समता सुख प्रगट हो जाता है, दुविधाभाव नष्ट हो जाता और भेदविज्ञान के द्वारा स्व-पर का विवेक जाग्रत हो जाता है । इसलिए पानतराय कहने लगते मातम अनुभव करना रे भाई।' भेदविज्ञान जब तक उत्पन्न नहीं होता तब तक जन्म-मरण का दुःख सहना पड़ता है । सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन, व्रत तप, संयम मादि प्रात्मज्ञान के विना निरर्थक हैं। इसलिए कवि रागादिक परिणामों को त्यामकर समता से लौ लगाने का संकल्प करता है, क्षायक श्रेणी चढ़कर चरित मोह का नाश करना चाहता है, क्रमशः पातिया-अघातिया कर्मों को नष्ट कर महन्त और सिद्ध अवस्था प्राप्त करने की बात करता है । उसकी संकल्प पूति की प्रातुरता 'मातम जानो रे भाई' और कभी 'करकर प्रातम हित रे प्रानी' कह उठता है। जब भेदविज्ञान हो जाने का उसे विश्वास हो जाता है तो 'मब हम मातम को पहिचानी', दुहराकर 'मोहि कब ऐसा दिन प्राय है' कह जाता है । ससार की स्वार्थता देखकर उसे यह भी अनुभव हो जाता है-दुनिया मतलब की गरजी, अब मोहे जान भया भगवतीदास ने राग द्वेष को जीतना, क्रोध मानादिक माया-लोभ कषामों को दूर करना, मुक्ति प्राप्ति के लिए आवश्यक बताया है । वे भेदविज्ञान को निजनिधि मानते है । उसको पाने वाला ब्रह्म ज्ञानी है और वही शिवलोक की निशानी कही गयी है । विश्वभूषण ने अनेकान्तवाद के जागते ही ममता के भाग जाने की बात कही और उसी को मुक्ति प्राप्ति का मार्ग कहा। वह उस योगी में 1. हिन्दी पद सग्रह, धानतराय, पृ. 109-141. 2. हिन्दी पद संग्रह, द्यानतराय, पृ. 109-141. जबलों रागद्वेष नहिं जीतय तबलों, मुकति न पावै कोइ । जबलों क्रोधमान मनधारत, तबलों सुगति कहो ते होई॥ जबलों माया लोभ बसे उर, तबलों सुख सुपनै नहिं जोइ । एपरि जीत भयो जो निर्मल, शिव संप्रति विलसत है सोइ ।।451 ब्रह्मबिलास, शत प्रष्टोतरी, 45, पृ. 18. 4. निजनिधि पहिचानी तब भयो ब्रह्मज्ञानी, शिवलोक की निशानी माप में घरी घरी ॥ वही, सुबुद्धि चौबीसी, 12 पृ. 16. 5. पद संग्रह, दि. जैन मंदिर बडौत, 49, हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 263.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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