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श्री
fee लगाना चाहता है जिसने सम्यक्त्व की डोरी से शील के कछोटा को बांध रखा है। ज्ञान रूपी गूदड़ी गले में लपेट ली है। योग रूपी प्रासन पर बैठा है। वह मादि गुरु का बेला है। मोह के काम फड़वाये हैं। उनमें शुक्ल ध्यान की बनी मुद्रा बहती है। क्षयकरूपी सिंगी उसके पास है जिसमें करुणानुयोग का' नाद निकलता है । वह प्रष्ट कर्मों के उपलों की घुमी रमाता हे और की अग्नि जलाता है उपशम के छन्ने से छानकर सम्यक्त्व रूपी जाल से मल-मलकर महाता है । इस प्रकार वह योग रूपी सिंहासन पर बैठकर मोक्षपुरी जाता है। उसने गुरु की सेवा की है जिससे उसे फिर कलियुग में न धाना पड़े ।
इस प्रकार जैन साधक रहस्य- साधना के साधक तत्त्वों पर स्वानुभूतिपूर्वक चलने का उपक्रम करता है । वह सद्गुरु अथवा स्वाध्याय के माध्यम से संसार की क्षणभंगुरता तथा अनित्यशीलता पर गम्भीर चिन्तन कर शनैः-शनैः सम्यक्त्व के सोपन पर चढ़ जाता है । साधनात्मक रहस्य भावना की प्रवृत्तियों का जन्म तथा सांगोपांगता पर विचार करने के साथ ही इन प्रवृत्तियों में सहज योग साधना तथा समरसता के भाव जाग्रत होते है । साधक इन्हीं भावनाओंों के आधार पर स्वात्मा के उतर विकास पर पहुचने का मार्ग प्रशस्त कर लेता है ।
1. वही, पन्ना 49, दि. जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 263.