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सप्तम परिवर्त रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियाँ
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रहस्य भावना के बाधक तत्त्वों को दूरकर साधक, साधक तत्त्वो को प्राप्त करता है और उनमें रमण करते हुए एक ऐसी स्थिति को प्राप्त कर लेता है जब उसके मन में संसार से वितृष्णा और वैराग्य का भाव जाग्रत हो जाता है । फलतः वह सद्गुरु की प्रेरणा से प्रारमा की विशुद्धावस्था में पहुंच जाता है। इस अवस्था में साधक का प्रात्मा परमात्मा से साक्षात्कार करने के लिए आतुर हो उठता है और उस साक्षात्कार की अभिव्यक्ति के लिए वह रूपक, माध्यात्मिक विवाह, प्राध्यात्मिक होली, फागु मादि साहित्यिक विधामों का अवलम्बन खोज लेता है। मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्यों में इन विधानों का विशेष उपयोग हुमा है। उसमें साधनात्मक और भावनात्मक दोनों प्रकार की रहस्य साधनामों के दिग्दर्शन होते है। साधना की चिरन्तनता, मार्मिकता संवेदनशीलता, स्वसवेदनता, भेदविज्ञान मादि तत्वों ने साधक को निरंजन, निराकार, परम वीतराग प्रादि रूपों में पगे हुए साध्य को प्राप्त करने का मार्ग प्रस्तुत किया है और चिदानन्द बैतन्यमय ब्रह्मानन्द रस का खूब पान कराया है। साथ ही परमात्मा को अलख, प्रगम, निराकार, अध्यातमगम्य, परब्रह्म, ज्ञानमय, चिद्रूप, निरंजन, अनक्षर, अशरीरी, गुरुगुसाई, प्रगूड प्रादि शब्दों का प्रयोग कर उसे रहस्यमय बना दिया है। दाम्पत्य लक प्रेम का भी सरल प्रवाह उसकी अभिव्यक्ति के निझर से झरता हुमा दिखाई देता है । इन सब तत्वों के मिलन से जैन-साषकों का रहस्य परम रहस्य बन जाता है।
प्रस्तुत परिवर्त में साधक का पात्मा बहिरास्मा से मुक्त होकर अन्तरात्मा की पौर मुड़ता है । अन्तरात्मा बनने के बाद तथा परमात्मपद प्राप्ति के पूर्व, इन दोनों अवस्थामों के बीच में उत्पन होने वाले स्वाभाविक भावों की अभिव्यक्ति
1. बनारसी विलास, जिनसहननाम