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लगे, सुमति रूप सुहागिन मन को रमने लगी, साधक भात्र मंकुरित हो गये, हर्षवेग मा गया, समरस का जल झरने लगा। कवि अपने घर में प्रा गये, फिर बाहिर जाने की बात उनके मन से चली गयीं
'अब मेरे समकित सावन मायो ।' बीति कुरीति मिथ्यामति ग्रीषम पावस सहज सुहायो । प्रब ॥1॥ अनुभव दामिनि दमकन लागी, सुरति घटा घन छायो । बोलें विमल विवेक पपीहा, सुमति सुहागिन पायो । अब ॥2॥ गुरुधुनि गरज सुनत सुख उपज, मोर सुमत विहसायो। साधक भाव अकूर उठे बहु, जित तित हरण सवायो । अब ॥3॥ भूल भूलकहि भूल न सूझत, समरस जल झरलायो । भूधर को निकसै अब बाहिर, निज निरचू घर पायो ।। अब 1401
सम्यग्दर्शन के साथ ज्ञान और चारित्र का भी सम्बन्ध है । शुद्धज्ञान के साथ शुद्ध चरित्र का अंश रहता है। इससे ज्ञानी जीव हेय, उपादेय को सही ढंग से समझाता है । उसका वैराग्य पक जाता है, राग, द्वेष, मोह से उसकी निवृति हो जाती है, पूर्वोपार्जित कर्म निजीर्ग हो जाते हैं और वर्तमान तथा भविष्य में उनका बन्ध नहीं होता । ज्ञान और वैराग्य, दोनों एक साथ मिलकर ही मोक्ष के कारण होते हैं । जैसे किसी जगल में दावानल लगने पर लंगड़ा मनुष्य अंधे के कधे पर चढ़े पौर उसे रास्ता बताता जाये तो वे दोनो परस्पर के सहयोग से दावानल से बच जाते हैं । उसी प्रकार ज्ञान और चारित्र मे एकता मुक्ति प्राप्ति के लिए आवश्यक है । ज्ञान आत्मा का स्वरूप जानता है और चारित्र अात्मा में स्थिर होता है ।। रूपचन्द ने दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनो का सामुदायिक रूप ही साध्य की प्राप्ति में कारण बताया है। दर्शन से वस्तु के स्वरूप को देखा जाता है, ज्ञान से उसे जाना जाता है और चारित्र से उस पर स्थिरीकरण होता है। द्रव्यसंग्रह में भी यही बात कही गयी है।
मुक्ति का मार्ग सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की समन्वित अवस्था है। इस अवस्था की प्राप्ति भेदविज्ञान के द्वारा होती है । अन्तरंग और बहिरंग सभी प्रकार
1. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 147. 2. नाटक समयसार, सर्वविशद्धि द्वार, 82-85. 3 दोहा परमार्थ, 58-62, बधीचन्द मंदिर, जयपुर के शास्त्र भण्डार में
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