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कुदेव, कुधर्म, कुगुरु सेक्क, कुदेवसेवक मोर कुपसेवक ये छह बनायतन, कुमुझसेका, कुदेवसेवा मोर कुमर्मसेवा ये तीन मूख्खायें सम्यक्त्वी के दूर हो जाती हैं।
सम्यग्ज्ञानी जीव, सदैव प्रात्मचिन्तन में लगा रहता है। उसे दुनिया के अन्य किसी कार्य से कोई प्रयोजन नहीं होता। मानस्थन ने एक अच्छा उदाहरण दिया है । जैसे ग्रामवधुएं पांच-साख सहेलियां मिलकर पानी भरके घर की भोर चलीं । रास्ते में हंसती इठलाती चलती हैं पर उनका ध्यान निरन्तर बड़ों में लगा रहता है । गायें भी उदर पूर्ति के लिए जंगल जाती हैं, वास चाटती है, चारों दिशामों में फिरती हैं, पर उनका मन अपने बछड़ों की-मोर लगा रहता है। इसी प्रकार सम्यक्त्वी का भी मन अन्य कार्यों की पोर झुका रहने पर भी ब्रह्म-साधना की ओर से विमुख नहीं होता।
सात पांचसहेलियां रे हिल-मिल पाणीड़े जाय । ताली दिये खल हंस, वाकी सुरत गगरुपामायं । उदर भरण के कारणों रे गउवां बन में जाय ।
चारों पर पहुं दिसि फिरें, वाकी सुरत बछरूमा मायं ॥2 भैया भगवतीदास ने सम्यक्त्व को सुगति का दाता और दुर्गति का विनाशक कहा है। छत्रपति की दृष्टि में जिस प्रकार वृक्ष की जड़ और महल की मींव होती है वैसे ही सम्यक्त्व धर्म का मादि और मूल रूप है। उसके बिना प्रशमभाव, श्रुतज्ञान, व्रत, तप, व्यवहार प्रादि सब कुछ भले ही होता रहे पर उनका सम्बन्ध प्रात्मा से न हो, तो वे व्यर्थ रहती हैं, इस प्रकार सम्यक्त्व के बिना भी सभी क्रियायें सारहीन होती है।
भूधरदास का कवि सम्यक्त्व की प्राप्ति से वैसा ही प्रफुल्लित हो जाता है जैसे कोई रसिक सावन के माने से रसमान हो उठता है। मिथ्यात्वरूपी ग्रीष्म व्यतीत हो गया, पावस बड़ा सुहावना लगने लगा। मात्मानुभव की दामिनि दमकने लगी, सुरति की धनी घटायें छाने लगीं । विमल विक रूप पपीहा बोलने
1. दौलतराम, 3. 11-15. 2. जैनशोध और समीक्षा, पृ. 132, नाटक समवसार, निर्जराद्वार, 34. 3. ब्रह्मविलास, पुण्यपचीसिका, 8-10 पृ. 3-4.
विरच्छ के जर वर महल के नींव जैसे, धरम की मादि से सम्यकदरश है। या बिन प्रशमभाव श्रुतज्ञान त तप, विवहार होत है न मातम परत है। जैसें विन बीज अल साधन न अन्न हेत, रहत हमेश परशेय को तरस है 12711 मनमोदन, 27, पृ. 13.