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स्वर - विवेक रूप यह भेदविज्ञान साधक के सन में संसार भौर पदार्थ के स्वरूप को स्पष्ट कर देता है और उससे सम्बद्ध रागादिक विकारों को दूर करने में सहायक होता है । उसके मन में रहस्य भावना की प्राप्ति घोर उसकी साधना के प्रति प्रात्मविश्वास बढ़ जाता है और फलतः वह रत्नत्रय की प्राप्ति की और अग्रसर होता है ।
9. रत्नत्रय
रत्नत्रय का तात्पर्य सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का समन्वित रूप है। इन तीनों की प्राप्ति ही मुक्ति का मार्ग है। यह मार्ग भेदविज्ञान के द्वारा प्राप्त होता है । भेदविज्ञान को ही सम्यग्ज्ञान कहा गया है। सम्यग्ज्ञानी वही है जिसे श्रात्मा का यथार्थ ज्ञान हो, परमार्थ से सही प्रेम हो, सत्यवादी और निविरोधी हो, पर पदार्थों में प्रासक्ति न हो, अपने ही हृदय में आत्म हित की सिद्धि, प्रात्मशक्ति की ऋद्धि और प्रात्मगुणों की वृद्धि प्रगट दिखती हो तथा प्रात्मीय सुख से प्रानंदित हो । 2 इसी से आत्मस्वरूप की पहिचान होती है प्रोर साधक समझ लेता है
'अब ग्यान कला जागी भरम की दृष्टि भागी,'
अपनी परायी सब सौज पहिचानी है ।"
सम्यग्ज्ञानी इन्दियजनित सुख-दुख से अभिरुचि हटाकर शुद्धात्मा का अनुभव करता है तथा दर्शन ज्ञान- चरित्र को ग्रहण कर प्रात्मा की भाराधना करता है । 4 ज्ञान रूपी दीपक से उसका मोह रूपी महान्धकार नष्ट हो जाता है । उस दीपक मे fear भी 'ग्रा नहीं रहता, हवा के झकोरों से बुझता नहीं, एक क्षण भर में कर्मपतंगों को जला देता है, बत्ती का भोग नहीं, घृत तेलादि की भी श्रावश्यकता नहीं, मांच नहीं, राग की लालिमा नहीं । उसमें तो समता, समाधि और योग प्रकाशित रहते हैं, निःशंकित, निकांक्षित, निर्विचिकित्सा, प्रमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सत्य और प्रभावना ये म्राठ श्रंग जाग्रत हो जाते हैं ।" कुल जाति, रूप, ज्ञान, घन, बल, तप, प्रभुता, ये प्राठ मद दूर हो जाते हैं, कुगुरु,
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग : तत्वार्थ सूत्र 1, 1.
नाटक समयसार, उत्थानिका, 7, पृ. 7.
1.
2.
3. वही, कर्ता कर्म द्वार, 28 पृ. 87.
4.
वही, निर्जराद्वार, 8, 9, 19 संवर द्वार 5. 5. वही, निर्जराद्वार, 38, 60.