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________________ " देखी मेरी सखीये भाज चेतन घर भावं । काल अनादि फिरयो परवश ही अब निज सुधहि चितावं ||" भेदविज्ञान रूपी तरुवर जैसे ही सम्यक्त्वरूपी धरती पर ऊंगता है वैसे ही उसमें सम्यग्दर्शन की मजबूत शाखायें प्रा जाती हैं, चारित्र का का दल लहलहा जाता है, गुरण की मंजरी लग जाती है, यश स्वभावतः चारों दिशाओं में फैल जाता है । दया, वत्सलता, सुजनता, आत्मनिन्दा, समता, भक्ति, विराग, धर्मराग, मनप्रभावना, त्याग, धैर्य, हर्ष, प्रवीणता प्रादि अनेक गुण गुणमंजरी में गुथे रहते हैं । " afa भूवरदास को भेदविज्ञान हो जाने पर प्राश्चर्य होता है कि हर श्रात्मा में जब अनन्तज्ञानादिक शक्तियां हैं तो संसारी जीव को यह बात समझ में क्यों नहीं श्राती । इसलिए वे कहते हैं 161 पानी विन मीन प्यासी, मोहे रह-रह भावं हांसी रे || द्यानतराय आत्मा को सम्बोधते हुए स्वयं श्रात्मरमण की ओर झुक जाते हैं और उन्हें प्रत्मविश्वास हो जाता है कि 'अब हम भ्रमर भये न मरेंगे ।' भेदविज्ञान के द्वारा उनका स्वपर विवेक जाग्रत हो जाता है और वे प्रात्मानुभूतिपूर्वक चिन्तन करते हैं । यब उन्हे चर्मचक्षुत्रों की भी प्रावश्यकता नहीं। अब तो मात्र मात्मा की अनन्तशक्ति की ओर उनका ध्यान है । सभी वैभाविक भाव नष्ट हो चुके हैं और आत्मानुभव करके संसार- दुःख से छूटे जा रहे हैं हम लागे श्रातमराम सौं । विनाशीक पुद्गल की छाया, कौन रमै धन-धान सौं ॥ समता सुख घट में परगार-यो, कौन काज है काम सौं । दुविधाभाव जलांजलि दीनो मेल भयो निज स्वाम सौं । भेदज्ञान करि निज पर देख्यौ, कौन विलौकं चाम सौं । उरं परं की बात न भावे, लौ लागी गुरण -ग्राम सौं ॥ विकलप भाव रंक सब भाजं, भरि चेतन प्रभिराम सौं । 'द्यान ' मातम अनुभव करि के, छूटे भव-दुख घाम सौं । afa छत्रपति ने भी भेदविज्ञान के माहात्म्य का सुन्दर वर्णन किया है ।" 1. वही, शतप्रष्टोतरी, 64. 2. वही, गुरणमंजरी, 2–6, पृ. 126. 3. हिन्दी पद संग्रह, पृ. अध्यात्म पदावली, 47, पृ. 358. 4. 5. मनमोदनपत्र, 76, पृ. 36.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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