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पहचानते हैं। इसलिए भेदविज्ञान को संवर, निर्जग और मोक्ष का कारण माना गया है ।" भेदविज्ञान के बिना शुभ-अशुभ की सारी क्रियायें भागवद् भक्ति, बाह्यतप प्रादि सब कुछ निरर्थक है । भेदविज्ञान अपनी ज्ञान शक्ति से द्रव्य कर्म-भावकर्म को नष्ट कर मोहान्धकार को दूर कर केवल ज्ञान की ज्योति प्राप्ति करता है । कर्म और नोकर्म से न छिप सकने योग्य अनन्त शक्ति प्रकट होती है जिससे वह सीधा मोक्ष प्राप्त करता है
भेदविज्ञान को ही श्रात्मोपलब्धि कहा गया है। इसी से चिदानन्द अपने सहज स्वभाव को प्राप्त कर लेता है । पीताम्बर ने ज्ञानवावनी में इसी तथ्य को काव्यात्मक ढंग से बहुत स्पष्ट किया है। 5 बनारसीदास ने इसी को कामनाशिनी पुण्यपापताहरनी, रामरमणी, विवेकसिंहचरनी, सहज रूपा, जगमाता रूप सुमतिदेवी कहा है । मेया भगवतीदास ने "जैसो शिवखेत तेसो देह में विराजमान, ऐसो लखि सुमति स्वभाव मे पगते है ।"" कहकर "ज्ञान बिना बेर-बेर क्रिया करी फेर-फेर, कियो कोऊ कारज न प्रातम जतन को " कहा है। कवि का चेतन जब श्रनादिकाल से लगे मोहादिक को नष्ट कर अनन्तज्ञान शक्ति को पा जाता है तो कह उठता है
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जैसी कोऊ मनुष्य प्रजान महाबलवान, खोदि मूल वृच्छ को उखारं गहि बाहू सौं । तैसे मतिमान दर्व कर्म भावकर्म त्यागि, रहे अतीत मति ग्यान की दशाहू सौं । याही क्रिया अनुसार मिटै मोह अन्धकार जग जोति केवल प्रधान सविताहू सौं । चुके न सुकतीसों लुकं न पुद्गल माहि धुकं मोख थलको रुकं न फिर काहू सौ ॥
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बही, संवरद्वार, 3 पृ. 183.
वही, संवरद्वार, 6, पृ. 125.
वही, निर्जराद्वार, 9, पृ. 135
वही, पृ. 210.
बनारसी विलास, ज्ञानवावनी, पृ. 72-90. वही, नवदुर्गा विधान, पृ. 7, पृ. 169-7C. ब्रह्मविलास, शत प्रष्टोत्तरी, 34.
वही, परमार्थं पद पंक्ति, 14, पृ, 114.