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जिसके प्राप्त होने पर अमृतरस बरसने लगता है पौर परमार्थ स्पष्ट दिखाई देने. लगता है। जैसे कोई व्यक्ति धोबी के घर जाकर दूसरे के कपड़े पहन लेता है और यदि इस बीच उन कपड़ों का स्वामी प्राकर कहता है कि मे कपड़े मेरे हैं तो वह मनुष्य अपने वस्त्र का चिन्ह देखकर त्याग बुद्धि करता है, उसी प्रकार यह कर्म संयोगी जीव परिग्रह के ममत्व से विभाव में रहता है अर्थात् शरीरादि को अपना मानता है । परन्तु भेदविज्ञान होने पर जब स्व-पर का विवेक हो जाता है तो वह रागादि भावों से भिन्न अपने स्वस्वभाव को ग्रहण करता है। जिस प्रकार पारा काष्ठ के दो खण्ड कर देता है, अथवा जिस प्रकार राजहंस क्षीर-नारी का पृथक्करण कर देता है उसी प्रकार भेदविज्ञान अपनी भेदन-शक्ति से जीव भोर पुद्गल को जुदाजुदा करता है । पश्चात् यह भेदविज्ञान उन्नति करते-करते अवधिशान मनः पर्ययशान और परमावधि ज्ञान की अवस्था को प्राप्त होता है और इस रीति से वृद्धि करके पूर्ण स्वरूप का प्रकाश अर्थात् केवलज्ञान स्वरूप हो जाता है जिसमें लोकमलोक के सम्पूर्ण पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं
जैसे करवत एक काठ बीच खण्ड करें, जैसे राजहंस निखारै दूध जलकौं । तंसे भेदग्यान निज भेदक सकतिसेती,
भिन्न-भिन्न कर चिदानन्द पुद्गल कौं ।।3 शुद्ध, स्वतन्त्र, एकरूप, निराबाघ भेदविज्ञान रूप तीक्ष्ण करौंत अन्तःकरण में प्रवेश कर स्वभाव-विभाव और जड़ चेतन को पृथक्-पृथक् कर देता है वह भेदविज्ञान जिनके हृदय में उत्पन होता है उन्हें शरीर प्रादि पर वस्तु का भाव नहीं सुहाता । वे प्रात्मानुभव करके ही प्रसन्न होते हैं और परमात्मा का स्वरूप
1. बही, बनारसीदास, पृ. 59. 2. जैसें कोऊ जन गयो धोबीक सदन तिन,
पहिरयो परायो वस्त्र मेरो मानि रही है। धनि देखि कह्यो भैया यह तो हमारी वस्त्र, तैसे ही मनावि पुद्गलसों संजोगी जीव, संग के ममत्व सौं विभाव तामैं ब्रह्मा है । भेदज्ञान भयो जब पापी पर जान्यौ तब,
न्यारी परभावसौं स्वभाव निज गही है । नाटक समयसार, बीवहार,32. 3. नाटक समयसार, अजीबद्वार, 14 पृ. 64,