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'दुविधा कम जे है या मन की' । कब निजनाथ निरंजन सुमिरौ तज सेवा जन-जन की । कबरुचि सौंपी दूग चातक, द्वन्दा श्रलय पद धन की । कब सुभ ध्यान धरौं समना गहि करूं न ममता तन की। कब घट अन्तर रहे निरन्तर दिढ़ता सुगुरु वचन की । कब सुख ल्हों भेद परमारथ, मिटे धारना धन की । कब घर खांड़ होहु एकांकी, लिये लालसा बन की । ऐसी दसा होय कब मेरी हौं बलि-बलि वा धन की ॥
- (हिन्दी पद, सग्रह, पद 80 ) दौलतराम "हम तो कबहुं न निजगुन आये" कह 'निज घर नाहिं पिछान्यौ रे' कह उठते हैं । विद्यासागर भी "मैं तो या भन व्यक्त कर करते हैं । ये भाव साधक की प्रांतरिक हैं जिनमें परमात्मा के साक्षात्कार की गहन माशा प्राध्यात्मिक प्रगति के सोपान चढ़ता रहता है ।
योंहि गमायो" कहकर यही भाव पवित्रता से उत्पन्न मार्मिक स्वर जुडी हुई है जिसके बल पर वह
इस प्रकार जैन धर्म में अन्तरंग की विशुद्धि पर विशेष जोर दिया गया है । इसलिए बनारसीदास ने ज्ञानी और अज्ञानी की साधना के फल मे अन्तर दिखाते हुए स्पष्ट कहा है-
जाके चित्त जैसी दशा पंडित भव खंडित करें,
ताकी तैसी दृष्टि । मूढ बनावे सृष्टि ॥
स्व-पर का विवेक भेदविज्ञान कहलाता है । उसका प्रकाश आदिकाल से लगे हुए जीव के कर्म और मोह के नष्ट हो जाने पर होता है । सम्यग्दृष्टि ही भेदविज्ञानी होता है । उसे भेदविज्ञान सांसारिक पदार्थों से ऐसे पृथक् कर देता है जैसे प्रग्नि स्वर्ण को किट्टिका आदि से भिन्न कर देती है ।" रूपचन्द इसी को सुप्रभात कहते हैं- "प्रभु मोकौं अब सुप्रभात भयो ।" वह मिथ्याभ्रम, मोहनिद्रा, क्रोधादिक कषाय, कामविकार श्रादि नष्ट होने पर प्राप्त होता है । यही मोक्ष का कारण है 1 3 8. भेदविज्ञान
भेदविज्ञान होने पर चेतन को स्वानुभव होने लगता है अन्य पक्ष के स्थान पर अनेकान्त की किरण प्रस्फुटित हो जाती है, श्रानन्द कन्द ममन्द मूर्ति में मन रमण करने लगता है । इसलिए भेदविज्ञान को 'हिये की प्राखें' कहा गया है ।
बनारसी विलास, कर्म छत्तीसी, 37,
नाटक समयसार, जीवद्वार, 23.
1.
2.
3. हिन्दी पद संग्रह, दु. 36.
4.
वही, पृ. 36-37.
पृ. 139.