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शुद्ध भाव की प्राप्ति हो जाने पर पर पदार्थों से भरुचि हो जाती है, संशयादिक दोष दूर हो जाते है, विधि निषेध का ज्ञान हो जाता है, रागादिक वासना दूर होकर निवेद भाव जाग्रत हो जाता है। इसलिए शुद्धभाव और प्रात्मज्ञान के बिना किया गया मिथ्या दृष्टि का करोड़ों जम्मों का बाललप उतने कर्मों का विनाश नहीं कर पाता जितना सम्यग्ज्ञानी जीव क्षण मात्र में कर डालता। इसलिए कवि दौलतराम शुद्ध भाव माहात्म्य को समझकर कह उठते हैं-मेरे कब है वा दिन की सुपरी।
तन विन वसन असन बिन बन में निवसी नास दृष्टि धरि ।। पुण्य पाप परसों कब विरचों, परचों निजविधि चिर-बिखरी। तज उपाधि, सज सहज समाधि सहों धाम-हिम मेघ झरी।। कब थिर-जोग घरों ऐसों मोहि उपल जान मृगखाज हरी । ध्यान-कमान तान अनुभवशर, छेदों किहि दिन मोह परी॥ कव तन कंचन एक गनों प्ररु, मनि जड़ितालय शैल दरी।।
दौलत सदगुरु चरनन सेऊं जो पुरवी प्राश यहै हमारी ॥
भावशून्य बाह्य क्रियानों का निषेधकर साधक अन्तरंग शुद्धि की ओर अग्रसर होता है । वह समझाने लगता है कि अपने आपको जाने बिना देहाश्रित क्रियायें करना तथा-निर्वेद हुए बिना कठिन तप करना व्यर्थ है इसलिए दौलतराम कहते हैं कि यदि तू शिव पद प्राप्त करना चाहता है तो निज भाव को जानो।
यह चित्तविशुद्धि प्रात्मालाचन गभित होती है। प्रात्मालोचन के बिना साधक आत्मविकास की ओर सफलतापूर्वक पग नहीं बढ़ पता। प्रात्मालोचन और प्रात्मशोधन परस्पर गुथे हुए हैं । जैन कवियों ने इन दोनों क्षेत्रों में सहजता और सरलतापूर्वक प्रात्म दोषों को प्रगट कर चित्तविशुद्धि की मोर कदम बढ़ाये हैं-1 रूपचन्द को इस बात का पश्चात्ताप है कि उन्होंने अपना मानुस जन्म व्यर्थ खो दिया 'मानुस जन्म वृथा तें खोयो' (हिन्दी षद संग्रह, पद 46) । द्यानतराय (धानत विलास, पद 21) कवि चिन्ता ग्रस्त है कि उसे वैराग्य भाव कब उदित होगा-"मेरे मन कब हवे है वैराग" (द्यानत पद संग्रह, पद 241) यही सोचते-सोचते वे कह उठते हैं
1. वही, 103-105. 2. अध्यात्म पदावली, पृ. 341.
शिव चाहै तो द्विविध धर्मत, कर निज परनति न्यारी रे। दौलत जिन जिन भाव पिछाण्यो, तिन भवविपति विदारी रे॥ वही, पृ. 332.