________________
। इस प्रकार रूपक काव्य प्राध्यात्मिक चिन्तन को एक नयी दिशा प्रदान करते है । साधकों ने प्राध्यात्मिक साधनों में प्रयुक्त विविध तत्त्वों को भिन्न-भिन्न कारकों में खोजा है और उनके माध्यम से चिन्तन की गहराई में पहुंचे हैं। इससे सावना में निखार पा गया है। रूपकों के प्रयोग के कारण भाषा में सरसता और प्रालंकारिकता स्वभावतः अभिव्यंजित हुई है ।
3. अध्यात्म और भक्तिमूलक काव्य हिन्दी जैन साहित्य मूलतः अध्यात्म और भक्तिपरक है। उसमें बवा, मान मोर माचार, तीनों का समन्वय है। महन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय पीर साधु इन पंच परमेष्ठियों की भक्ति में साधक कवि सम्यक साधना पथ पर चलता है और साध्य की प्राप्ति कर लेता है। इस सम्यक साधन और साध्य की अनुभूति कवियों के निम्नांकित साहित्य में विविध प्रकार से हुई है।
1. जैन कवियों ने जैन सिद्धान्तों का विवेचन कहीं-कहीं गद्य में न कर पद्य में किया है। वहां प्रायः काव्य गौण हो गया है और तत्त्व-विवेचन मुख्य । उदाहरणतः भ. रत्नकीर्ति के शिष्य सकलकीर्ति का पाराधना प्रतिबोधसार, यशोधर का तत्वसारदूहा, वीरचन्द को संबोधसत्ताणु भावना प्रादि । इन्हें हम प्राध्यात्मिक काव्य कह सकते हैं।
2. स्तवन जैन कवियों का प्रिय विषय रहा है। भक्ति के क्षेत्र में वे किसी से कम नही रहे । इन कवियो और साधकों की आराध्य के प्रति व्यक्त निष्काम भक्ति है । उन्होंने पंचपरमेष्ठियों की भक्ति में स्तोत्र, स्तुति, विनती, धूल आदि अनेक प्रकार की रचनाएँ लिखी हैं। पंचकल्याणक स्तोत्र, पंचस्तोत्र आदि रचनायें विशेष प्रसिद्ध है । इन रचनामों में मात्र स्तुति ही नहीं प्रत्युत वहां जैन सिद्धान्तों का मार्मिक विवेचन भी निबद्ध है।
3. चौपाई, जयमाल, पूजा प्रादि जैसी रचनामों में भी भक्ति के तत्त्व निहित है । दोहा और चौपाई अपभ्रंश साहित्य की देन है। ज्ञानपंचमी चौपाई, सिद्धान्त चौपाई, ढोला मारु चौपाई, कुमति विध्वंस चौपाई जैसी चौपाइयां जैन साहित्य में प्रसिद्ध हैं। यहां एक ओर जहां मिद्धान्त की प्रस्तुति होती है दूसरी और ऐतिहासिक तथ्यों का उद्घाटन भी । मूलदेव चौपाई इसका उदाहरण है।
4. पूजा साहित्य जैन कवियों का अधिक है । पंचपरमेष्ठियों की पूजा, पंचम दालक्षण, सोलहकारण, निर्दोषसप्तमीवत प्रादि व्रत सम्बन्धी पूजा, देवगुरु-शास्त्रपूजा, जयमाल मादि अनेक प्रकार की भक्तिपरक रचनायें मिलती हैं। बानराय का पूजा साहित्य विशेष लोकप्रिय हुमा है।
5. चांचर, होली, फागु, यद्यपि लोकोत्सवपरक काव्य रूप हैं पर उनमें जन कवियों ने बड़े ही सरस ढंग से माध्यात्मिक विवेचन किया है। चांचर या वरी में