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रूपकों के माध्यम से उद्घाटित करने का प्रयत्न किया है। इस विधि से जैन तत्वों के निरूपण में नीरसता नहीं प्रा पायी। बल्कि भाव-व्यंजना कहीं अधिक गहराई से उभर सकी है । इस दृष्टि से त्रिभुवनदीपक प्रबन्ध, विद्याविलास पवाड़ा, नाटक समयसार, चेतन कर्मचरित, मधु बिन्दुक चौपई, उपशम पच्चीसिका, परमहंस चौपाई, मुक्तिरमणी चुनड़ी, चेतन पुद्गल धमाल, मोहविवेक युद्ध प्रादि रचनायें महत्वपूर्ण हैं । रूपकों के माध्यम से विवाहलउ भी बड़े सरस रचे गये हैं ।
इन रूपक काव्यों में दार्शनिक, आध्यात्मिक तथा सूक्ष्म भावनाओं का सुन्दर विश्लेषण किया गया है । नाटक समयसार इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है । कवि बनारसीदास ने रूपक के माध्यम से मिध्यादृष्टि जीव की स्थिति का कितना सुन्दर चित्रण किया है यह देखते ही बनता है-
काया चित्रसारी मैं करम परजक मारी,
माया की सवारी सेज चादरि कलपना । संन करें चेतन अचेतना नीद लिये,
मोह की मरोर यहै लोचन को ढपना ॥ उद बल जोर यहै स्वासको सबद घोर,
विषं सुख कारज की दौर यह सपना । ऐसी मूढ़ दसा मैं मगन रहे तिहुँकाल,
धावै भ्रम जाल में न पावे रूप अपना ।।14।
इसी प्रकार 'मधुबिन्दुक चौपाई' में कवि भगवतीदास ने रूपक के माध्यम से संसार का सुन्दर चित्रण किया है
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यह संसार महावन जान । तामहि भयभ्रम कूप समान ||
गज जिम काल फिरत निशदीस तिहुँ पकरन कहुँ विस्वावीस ।। वट की जटा लटकि जो रही । सो प्रायुर्दा जिनवर कही || तिह जर काटत मूसा दोय । दिन अरु रैन लखहु तुम सोय || मांखी चूटत ताहि शरीर । सो बहु रोगादिक की पीर ॥ अजगर पस्यो कूप के बीच। सो निगोद सबतैं गति बीच || याकी कछू मरजादा नाहि । काल अनादि रहे छह माहि || तातें भिन्न कही इहि ठौर । चहुँ गति महितें भिन्न न औौर ॥ बहुदिश चार महाभुजंग । सो गति चार कही सवंग ॥ मधु की बून्द विषै सुख जान । जिन्हें सुख काज ज्यों नर त्यों विषयाश्रित जीव । इह विषि विद्याधर तहँ सुगुरु समान । दे उपदेश सुनावत ज्ञान ॥
रह्यो हितमान ||
संकट सहै सवीव ॥