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राजाओं का area मिला धौर फलत: धार्मिक साहित्य, कला और संस्कृति का fare पर्याप्त मात्रा में हुआ । गुर्जर प्रतिहार राजा वत्सराज के राज्य में उयोतनसूरि ने 178 ई. में कुवलयमाला, जिनसेन ने सं. 783 में हरिवंशपुराण और हरिभद्र सूरि ने लगभग इसी समय समराइच्चकहा आदि ग्रन्थों का निर्माण किया । देवगढ़ खजुराहो प्रादि के अनेक जैन मंदिर इसी के उतरकालीन हैं। प्राचार्य सोमदेव के यशस्तिलम्पू (959 ई.), नीतिवाक्यामृत प्रादि ग्रन्थ भी इसी समय के हैं ।
धारा के परमार वंशीय राजाओं ने जैन कवियों को विशेष राजाश्रय दिया । राजा मुंज, नवसाहसांक, भोज प्रादि राजा जैन धर्मावलम्बी रहे। उन्होंने जैन कवि धनपाल, महासेन, अमितगति, माणिक्यनंदी, प्रभाचन्द, नयनन्दी, धनंजय, प्राशावर प्रादि विद्वानों को समुचित श्राश्रय दिया । मेवाड की राजधानी चित्तोड़ (चित्रकूटपुर ) जैनधर्म का विशिष्ट केन्द्र था । यहीं पर एलाचार्य, वीरसेन, हरिभद्रसूरि आदि faarti ने अपनी साहित्य सर्जना की । चित्तौड़ के प्राचीन महलों के निकट ही राजात्रों ने भव्य जैन मन्दिर बनवाये । हथूडी का राठोर वश जैन धर्म का परम अनुयायी था । वासूदेव सूरि, शान्तिभद्र सूरि प्रादि विद्वान इसी के श्राश्रय में रहे हैं ।
चन्देल वंश में चलवंशीय राजा भी जैनधर्म के परम भक्त थे । खजुराहो के शान्तिनाथ मंदिर में आदिनाथ की विशाल प्रतिमा की प्रतिष्ठा विद्याधर देव के शासनकाल में हुई । देवगढ, महोबा, अजयगढ़, प्रहार, पपोरा, मदनपुरा धादि स्थान जैनधर्म के केन्द्र थे। ग्वालियर के कच्छपघट राजाओं ने भी जैन धर्म को खूब फलने-फूलने दिया ।
कलिंग राज्य प्रारम्भ से ही जैनधर्म का केन्द्र रहा है। जैनाचार्य प्रकलंक का बौद्धाचार्यो के साथ प्रसिद्ध शास्त्रार्थ यहीं हुआ । परन्तु उत्तरकाल में यहां जैनधर्म का ह्रास हो गया । कलचुरीवंश यद्यपि शैव धर्मालम्बी था पर उसने जैनधर्म और कला को पर्याप्त प्रतिष्ठित किया । कुरुपाद, रामगिरि, अचलपुर, जोगीमारा, कुण्डलपुर, कारंजा, एलोरा, धाराशिव, खनुपदमदेव आदि जैन धर्म के केन्द्र थे ।
गुजरात में भी प्रारम्भ से ही जैन धर्म का प्रचार-प्रसार रहा है। मान्यखेट के राष्ट्रकूट राजा जैनधर्म के प्रति अत्यन्त उदार थे । विशेषत: अमोघवर्ष और कर्क "ने यहाँ जैनधर्म को बहुत लोकप्रिय बनाया। गुजरात अन्हिलपाटन का सोलंकी वंश भी जैनधर्म का प्राश्रयदाता रहा। प्राबू का कलानिकेतन इस वंश के भीमदेव प्रथम के मंत्री और सेनानायक विमलशाह ने 1032 ई. में बनवाया। राजा जयसिंह ने महिल- पाटन को ज्ञान केन्द्र बनाकर प्राचार्य हेमचन्द्र को उसका कार्यभार सौंपा। हेमचन्द्र ने द्वाश्रय काव्य, सिद्धम व्याकरण प्रादि बीसों ग्रन्थ तथा बाग्भट्ट ने