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माव न बार रे (भूधरक्लिास पद 5) । इसी तरह भागे कवि मन को मूरखपंथी कहकर हंस के सौम रूपक द्वारा उसे सांसारिक वासनामों से विरक्त रहने का उपदेश दिया है और जिमचरण में बैठकर सतगुरु के वचनरूपी मोतियों को चुनने की सलाह दी है-मन हँस हमारी ले शिक्षा हितकारी।' (वही पद 33)
मन की पहेली को कवि दौलतराम ने जब परखा तो वे कह उठे-रे मन, तेरी को कुटेव यह ।' मह तेरी कैसी प्रवृति है कि तू सदैव इन्द्रिय विषयों में लगा रहता है । इन्हीं के कारण तो अनादिकाल से तू निज स्वरूप को पहिचान नहीं सका
और शाश्वत सुख को प्राप्त नहीं कर सका। यह इन्द्रिय सुख पराधीन, क्षरण-शयी दुःखदायी, दुर्गति और विपत्ति देने वाला है। क्या तू नहीं जानता कि स्पर्श इन्द्रिय के विषय उपभोग में हाथी गड्ढे में गिरता है और परतन्त्र बन कर अपार दुःख उठाता है । रसना इन्द्रिय के वश होकर मछली कांटे में अपना कण्ठ फंसाती है और मर जाती है। गन्ध के लोभ में भ्रमर कमल पर मण्डराता है और उसी में बन्द होकर अपने प्राण गंवा देता है । सौन्दर्य के चक्कर में प्राकर पतंग दीपशिखा में अपनी पाहुति दे डालता है। कणेन्द्रिय के लालच में संगीत पर मुग्ध होकर हरिण वन में व्याधों के हाथ अपने को सौप देता है। इसलिए रे मन, गुरु सीख को मान और इन सभी विषयों को छोड़
रे मन तेरी को कुटेव यह, करन-विषय में पाव है। दनहीं के वश तू अनादि तें, निज स्वरूप न लखावै है । पराधीन छिन-छीन समाकुल, दुरगति-विपत्ति चखा है । फरस विषय के कारन वारन, गरत परत दुःख पावै है। रसना इन्द्रीवश झष जल में, कंटक कंठ छिदावे है ।। गंध-लोल पंकज मुद्रित में, अलि निज प्रान खपाव है। नयन-विषयवश दीप शिखा में, अंग पतंग जरावै है ॥ करन विषयवश हिरन प्रस्न में, खलकर प्रान लुभाव है।
दौलत तज इनको, जिनको भज, यह गुरु-सीख सुनाव है। जनेतर प्राचार्यों की तरह हिन्दी के जैनाचार्यों ने भी मन को करहा की उपमा दी है। ब्रह्मदीप का मन विषय.रूप बेलि को चरने की ओर झुकता है पर उसे ऐसा करने के लिए कवि आग्रह करता है क्योंकि उसी के कारण उसे संसार में जन्म-मरण के परकर लगाना पड़े-"मन करहा भव बनिमा चरइ, तदि विष वेस्लरी बहूत । तहं परंतह बहुं दुखु पाइयड, तब जानहु गौ मीत ।" इस विषयवासना में शाश्वत सुख की प्राप्ति नहीं होगी। रे मूड़, इस मन रूपी हाथी को बिन्ध्य की पोर
1. अध्यात्म पदावली, पद 1, पृ. 3391