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जाने से रोको प्रयथा यह इम्हारे शील रूप बन को तहस-नहस कर देगा। फलतः तुम्हें संसार में परिभ्रमण करते रहना पड़ेगा
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ur remove में रह करहि इवियविसय सुहस्य । सुक्खु शिरंतर हि गवि मुच्चहि ते कि सग || अम्मिय इह मणु हत्विया विभहं अंतर वारि । तं मंजेस सीसवणु कुणु पडिसइ संसारि ॥
भगवतीदास को मन सबसे अधिक प्रबल लगा । त्रिलोकों में भ्रमण कराने वाला यही मन है । वह दास भी है। उसका स्वभाव चंचलता है । उसे वश में किये बिना मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। मन को ध्यान में केन्द्रित करते ही इन्द्रियां निराश हो जाती हैं और प्रात्मब्रह्म प्रकाशित हो जाता है ।
मन सो बली न दूसरो, देख्यो इहि संसार ।। तीन लोक में फिरत हो, जतन लागे बार ॥ 8 ॥ मन दासन को दास है, मन भूपन को भूप ॥ मन सब बातनि मम राजा की सेन रात दिना दौरa फिरै, करें अनेक अन्याय ॥ 10 ॥ इन्द्रिय से उमराव जिर्ह, विषय देश विचरंत || भैया तिह मन भूपको, को जीते विन संत ॥ 11 ॥ मन चंचल मन चपल प्रति, मन बहु कर्म कमाय ॥ मन जीते विन प्रातमा, मुक्ति कहो किम थाय ।। 12 ।। सम्सो जोषा जगत में, और दूसरो नाहि ॥
योग्य है, मन की कथा प्रनूप ॥ 9 ॥ सब इन्द्रिन से उमराव ॥
ताहि पचारं सो सुभट, जीत लहै जग माहि ॥ 13 ॥ मन इन्द्रिन को भूप है, ताहि करें जो फेर ॥
सो सुख पावे मुक्ति के, या में क न फेर ॥ 14 ॥ जब मन संघो ध्यान में, इन्द्रिय भई निराश ॥ तब इह भातम ब्रह्म ने, कीने निज परकाश ॥ 15 ॥
दुधजन को संसार में उलझा हुआ मन बाचला-सा लगने लगा परे पर वस्तुओं
को wet विकार में करना चाहता है- "मनुमा बावला हो गया । (बुधजन, विज्ञास, पद 104), इसी तरह वे अन्यत्र कह उठते हैं-हाँ मनाजी थारि गति बुरी कं
1. arra र हिन्दी में जैन रहस्यवाद, पृ. 177
2. ब्रह्मविलास, पृ. 262 1