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________________ 129 दुखदाई हो । निज कारण में नेक न लागत पर सौ प्रीति लगाई हो (वही, पद 62। और जर तक जाते हैं तो मन को उसकी प्रनन्त चतुष्टयी शक्ति का स्मरण कराकर कह उठते हैं-रे मन मेरा तू मेरी को भान-मान रे (बही, पद 64)। बानतराय मन को सन्तोष धारण करने का उद्बोधन करते हैं और उसी को सबसे बड़ा धन मानते हैं-"गाहु सन्तोष सदा मन रे, जा सम और नहीं पन दे" (द्यानत पद संग्रह, पद 61)। इसलिए वे विषय भोगों को विष-बेल के समान मानकर जिन नाम स्मरण करने के लिए प्रेरित करते हैं-"जिन नाम सुमर मन बावरे कहा इत उत भटक । विषय प्रकट विष बेल हैं जिनमें जिन पटक ।" (वही, पद 102) वीतराग का ध्यान ही उनकी दृष्टि में सदैव सुखकारी है-कर मन ! वीतराग को ध्यान । ....."धानत यह गुन नाम मालिका पहिर हिये सुखदान (वही, पद 61)। __ इस प्रकार हमने देखा कि उक्त बाधक तत्त्वों के कारण साधक साधना पथ पर अग्रसर नहीं हो पाता । कभी वह सांसारिक विषय-वासनाओं को असली सुख मानकर उसी में उलझ जाता है, कभी शरीर से ममत्व रखने के कारण उसी की चिन्ता में लीन रहता है, कभी कर्मों के प्राधव पाने और शुभ-अशुभ कर्मजाल में फैसने के कारण पात्म-कल्याण नहीं करता, कभी मिथ्यात्व, माया-मोह आदि के मावरण में लिप्त रहता है, कभी बाह्याडम्बरों को ही परमार्थ का साधन मानकर उन्ही क्रिया-काण्डों में प्रवृत्त रहता है और कभी मन की चंचलता के फलस्वरूप उसका साधना रूपी जहाज डगमगाने लगता है जिससे रहस्य साधना का पथ प्रोझल हो जाता है।
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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