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इसी प्रकार धन-सम्पत्ति भी जीव को दुर्गति में ले जाने वाली है। वह चपला-सी चंचल है, दावानल-सी वृथला को बढ़ाने वाली है, कुलटा-सी डोलती है, बन्धु विरोधिनी, छलकारिणी और कवायवधिणी है। क्रोधादिक कषाय भी इसी तरह चेतन को दुर्गति में ले जाने वाले होते हैं । क्रोष, भ्रम, भय, चिन्ता धादि को बढ़ाने वाला, सर्प के समान भयंकर, विषवृक्ष के समान जीवन हरण करने वाला, कलहकारी, यशहारी और धर्म मार्ग विध्वंसक है ।
माया कुमति-गुफा है, जहां बध -बुद्धि की घूमरेखा और कोप का दावानल उठता रहता है। मानी मदांध गज के समान रहता है। इसलिए भगवतीवास ने 'aife वे अभियान जियरे छांडि दे अभिमान ।' तू' किसका है और तेरा कौन है ? सभी इस जगत में मेहमान बन कर प्राये हैं, कोई वस्तु स्थिर नहीं । कुछ नहीं कहा जा सकता कि क्षण भर में तुम कहाँ पहुँचोगे । बड़े-बड़े भूप प्राये और गये तब तू क्यों गर्व करता है ?
माया वेतन के शुभ भावों को प्रच्छन्न कर देती है। वह कुशलजनों के लिए air uौर सत्यहारिणी है। मोह का कुंजर उसमें निवास करता है, वह प्रपयश की खान, पाप-सन्तापदायिनी, अविश्वास और विलाप की गृहिणी है ।" बनारसीदास
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बनारसीविलास, भाषासुक्तावली, 73-76
जो सुजन वित्त विकार कारन, मनहु मदिरा पान । जो भरम भय चिन्ता बढावत, प्रसित सर्प समान ॥ जो जन्तु जीवन हरन विष तय, तनदहनदवदान । सो कोपरांश बिनाशि भविजन, पहहू शिव सुलवान ॥ बही भाषासुक्तावली, 451,
3. वही, 511
4. छांड़ि दे प्रभिमान बियरे
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दे अभिमान ॥
mrat तू अरु कौन तेरे, सही हैं महिमात ॥ देश राजा रंक कोऊँ, पिर नहीं यह थान || 1 ||
ब्रह्मविलास, परमार्थ पद पंक्ति, 12, पृ. 113
5. वही, फुटकर कविता, 15, पृ. 276 | 6. कुचल जननको बांझ, सत्य रविहरन साँझ मिति । कुगति युवती उरमाल, मोह कुंजर निवास चिति । हम वारिज हिमराशि, पाप सन्ताप महायनि । प्रयश खानि जान, तजहु माया दुःखदायनि ॥ बनारसीविलास, भाषासुक्तावली, 53-56