________________
राजनीतिक चेतना सुप्तप्राय हो चुकी थी। फलतः जनता में राजामों के प्रति भक्ति सेवा भावना, प्रात्म समर्पण और राजनीतिक जीवन के प्रति उदासीनता छा गयी थी। उसके मन में राष्ट्रीय भावनायें अत्यंत सीमित हो चुकी थी। इन परिस्थितियों ने कवियों को राजामों का मात्र प्रशस्तिकार बना दिया। वे अपने प्राश्रय दातामों के गुणगान में ही अपनी प्रतिभा का उपयोग करने लगे। उन्हें अपने मात्रयदाता के सामन्ती ठाट-बाट और विलासिता के चित्रण में विशेष रुचि थी। लगभग 500 वर्षों के लम्बे काल में कान्यकुब्ज के यशोवर्मन के राजकवि भवभूति ने और प्रति. हार वंश के कुलगुरू राजशेखर ने अपने प्राश्रयदाता को प्रशस्ति का मान न करके रामायण और महाभारत के राजनीतिक आदर्शों को अपने प्रथ महावीर चरित उत्तर रामचरित, बाल भारत और बाल रामायण में स्थापित किया।
अपने आश्रयदाता राजारों की प्रशस्ति का गान करने वाली इस मध्ययुगीन परम्परा का श्रीगणेश बाणभट्ट से हुमा । उनका हर्षचरित राजा हर्ष की प्रशस्ति का ऐसा ही सस्कृत काव्य है । उत्तर कालीन कवियों ने उनका भलीभांति अनुकरण किया । गाउडवहो, नबसाहसांक चरित' कुमारपाल चरित, प्रबन्ध चिन्तामणि, वस्तु. पाल चरित प्रादि सैकड़ों ऐसे ग्रंथ हैं जो मात्र प्राश्रयदातामों की प्रशस्ति में लिखे हुये हैं । इसी परम्परा में हिन्दी कवियों ने रासो साहित्य का निर्माण किया। इस साहित्य के निर्मातामों में जैन कवि विशेष अग्रणी रहे हैं। उन्होंने इसका उपयोग तीर्थकर और जन प्राचार्यों की यशोगाथा में किया है।
13 वी शती से 18 वीं शती तक मध्य एशियाई मुसलमानों के प्राक्रमणों से भारत अत्यंत त्रस्त रहा । धीरे-धीरे राजसत्तायें पराधीनता की श्रृंखला में जकड़ती रही । मुहम्मद गोरी, गजनबी, संपद वश, लोदी वश, मुहम्मद तुगलक प्रादि मुसलमान राजानो के नियमित आक्रमण हुए जिससे सारा भारतीय जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो गया। भारतीय राजे-महाराजे स्वार्थता की चपेट में अधिकाधिक संकीर्ण होते गये। उनमें परस्पर विद्वप की अग्नि प्रज्जवलित होती रही । इसी बीच बाबर हुमायू, अकबर, जहांगीर, शाहजहा, मोरंगजेब मादि मुगलों के भी भाक्रमणों और प्रत्याक्रमणों ने भारतीय समाज को नष्ट-भ्रष्ट किया। भारतीय राजामों के बीच पनपी अन्तःकलहने भी युद्धो को एक खेल का रूप दे दिया। वासनावृत्ति ने इसमें भी का काम किया। इससे मुसलिम शासकों का साहस और बढ़ता गया ।
इसके बावजूद मुस्लिम शक्ति को भारतीय राजामों ने सरलतापूर्वक स्त्रीकार नहीं किया। लगभग 12वीं शताब्दी तक उत्तर भारत में उसका घनघोर प्रतिरोष हुमा । परन्तु परिस्थितिवश दिल्ली और कन्नौज के हिन्दू साम्राज्य नष्ट हये और यह प्रतिरोष कम हो गया । इस प्रतिरोध की माग राजस्थान, मध्यभारत,