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गुजरात और उड़ीसा के राजवंशों में फैलती रही और फलस्वस्म के मुखलमानों का तीव्र विरोध अंत तक करते रहे । परन्तु पारस्परिक कूट के कारण ये मुस्लिम मामरणों को पूर्ण रूप से ध्वस्त नहीं कर पाये। इसलिये जनता में कुछ निराका गयी। फिर भी मुसलमानों के साथ संघर्ष बना ही रहा । मेवाड़ के राजा संचामसिंह और विक्रमादित्य हेमचन्द्र के नेतृत्व में मुस्लिम शासकों से संघर्ष होते रहे और पौरंगजेब के समय तक पाते-पाते हिन्दुनों की भक्ति काफी बढ़ गयी । इसे हम राजनीतिक पुनरुत्थान का युग कह सकते हैं। इस समय जाट, सिक्स मराठा, राणाप्रताप, शिवाजी, दुर्गादास, छत्रसाल आदि भारतीय राजाओं ने उनके दांत खट्टटे किये पौर स्वतंत्रता के बीज बोये ।
उपर्युक्त राजनीतिक परिथतियों से यह स्पष्ट है कि इस काल में पानीतिक अस्थिरता के कारण जन-जीवन अस्त-व्यस्त और संत्रस्त था। जीवन की प्रसुरक्षा, राष्ट्रीयता का अपमान, कला-कृतियों का खण्डन, स्वाभिमान का हनन, सम्पत्ति का अपहरण जैसे तत्वों ने हिन्दुप्रों मोर मुसलमानों के बीच मेदभाव और वैमनस्य की जबर्दस्त दीवाल खड़ी कर दी थी। धर्मान्धता और नारी के सतीत्व. हरण के कारण राष्ट्र जीवन में निराशा का वातावरण छा गया था। फलत: उस समय भौतिक सुख की भोर से उदासीनता तथा भगवद्भक्ति की भोर संलग्नता दिखाई देती है।
डॉ. त्रिगुणायत ने इन राजनीतिक परिस्थितियों के फलस्वरूप भारतीय जीवन और समाज पर निम्नलिखित प्रभाव देखे हैं (1) धर्मसुधार की भावना जाप्रत हुई। नाथपन्य, लिंगायत, सिद्धरा मादि पन्थों का उदय इसी धर्म सुधार भावना के कारण हुमा था। इन सबका लक्ष्य हिन्दू धर्म और इस्लाम में सामंजस्य स्थापित करना था, (2) पर्दा प्रथा समाज में दृढ़ हो गई ताकि स्त्रियों को बलात्कार मादि जैसे कुकृत्यो से बचाया जा सके, (3) धर्म सगुणोपासना में असमर्थ होने के कारण निर्गुणोपासना की भोर झुका, तथा (4) ऐकान्तिकता और नित्यात्मकता से प्रेरित होकर साधकों ने निर्गुण ब्रह्मकी उपासना प्रारंभ की।।
2. মানিক ঘূতমুলি
जैसा अभी हम देख चुके हैं, इतिहास के मध्यकाल में भारत का सांस्कृतिक घरातल देशी-विदेशी राजानों के माक्रमणों से विखलित रहा। भारत का जनमानस उन माक्रमणों से त्रस्त हो गया और फलतः अपने धमों में सामयिक परि.
1. कबीर की विचारधारा, पृ. 71-72,