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प्राकृत 'एण' वाले रूपों के अतिरिक्त 'इ' (पुत्ति), 'ए' (पुत्ते) तथा
'इ' (पुत्तइ) बाले रूप भी मिलते हैं । (vi) चतुर्थी, पंचमी तथा षष्ठी के रूप 'हु' तथा 'हो' चिन्ह वाले 'पुत्तहु',
'पुत्तहो' मिलते हैं । साथ ही 'पुत्तस्स' रूप भी देखा जाता है। (vii) तृतीया तथा सप्तमी बहुवचन में "हिं' वाले रूप अधिक पाये जाते हैं,
'पुत्तहि' (पुत्तहि) । तृतीया में 'एहिं' वाले रूप भी मिलते हैं-'पुलैहि' (viii) पंचमी और षष्ठी बहुवचन में पुतह, पुतहं जैसे रूप मिलते हैं। (ix) नपुसक लिंग के प्रथमा एवं द्वितीया बहुवचन में 'इ-ई' (फलाइ
फलाइ) वाले रूप होते हैं । (x) कारक में केवल तीन समूह शेष रह गये-(a) प्रथमा, द्वितीया, संबोधन,
(b) तृतीया, सप्तमी, और (c) चतुर्थी, पंचमी और षष्ठी। सर्वनाम: 'अस्मत्' शब्द के प्रथमा एकवचन में 'हउ', मइ-मई' और बहुवचन
में अम्हे, अम्हई, द्वितीया । (ii) तृतीया व सप्तमी में मए-मई, पंचमी-षष्ठी में महु-मझु, रूप मिलते
हैं । युष्मत् शब्द के प्रथमा के रूप तुहु-तुहं, द्वितीया-तृतीया के पइ. पई तई; पंचमी-षष्ठी में तुह-सुज्झ-तुज्झु तथा तत्-यत् ; के अपभ्रंश
रूप सो-जो मिलते है। धातु रूप :
(i) अपभ्रंश में प्रात्मने पद का प्रायः लोप हो गया है। (ii) दस गणों का भेद समाप्त हो गया । सभी धातु म्वादिगण के
धातुओं की तरह चलते हैं। (iii) लकारों में भी कमी पाई । भूतकाल के तीनों लकार अदृष्ट हो गये
तथा हेतु-हेतु मद्भूत भी नहीं दिखता। इनके स्थान पर भूतकालिक कृदन्त रूपों का प्रयोग पाया जाता है । मुख्यतः लट्, लोट् और लुट्,
लकार बच गये। (iv ) णिजंत रूप, नाम धातु, वि रूप तथा अनुकरणात्मक क्रिया रूप भी
पाए जाते हैं । धातु रूपों में वर्तमानकाल के उत्तम पुरुष एकवचन में 'उ' वाले रूप करऊ, बहुवचन में 'मो' व 'हुँ' बाले रूप; मध्यम पुरुष के एकवचन बहुवचन में क्रमशः सि.हि तथा हु वाले रूप; प्रत्य पुरुष एकवचन में इ-एइ (करइ-करेइ) और बहुवचन में न्ति-हिं