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किया है, उसमें यह नि:संकोच कहा जा सकता है कि स्वयं सबसे बड़ा कवि स्वयं के रामायण और महाभारत दोनों ही विशाल कामी है ।'
यह बड़ा विवादास्पद प्रश्न है कि अपभ्रंश भाषा के ग्रन्थों में आये हुए वेशज raat wear on साहित्य की कतिपय प्रवृत्तियों को "पुरानी हिन्दी" का रूप स्वीकार किया जाय या नहीं। डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे विद्वान प्रपत्र' भाषा मौर साहित्य का मूल्यांकन करते हुए भी उसे "पुरानी हिन्दी" का रूप स्वीकार करने में हिचकिचाते हैं । उन्होंने लिखा है- "यह विचार भाषाशास्त्रीय और वैज्ञानिक नहीं है । भाषाशास्त्र के अर्थ में जिसे हम हिन्दी (खड़ी बोली, ब्रजभाषा,
प्रादि) कहते हैं, वह इस साहित्यिक पभ्रंश से सीधे विकसित नहीं हुई है । व्यवहार में पंजाब से लेकर बिहार तक बोली जाने वाली सभी उपभाषाधों को हिन्दी कहते हैं । इसका मुख्य कारण इस विस्तृत भूभाग के निवासियों की साहि fore भाषा की केन्द्राभिमुखी प्रवृत्ति है। गुलेरी जी इस व्यावहारिक प्रर्थ पर जीर देते हैं । " द्विवेदी जी कहते हैं-जहाँ तक नाम का प्रश्न है, गुलेरी जी का सुझाव पडितों को मान्य नहीं हुआ है। अपभ्रंश को अब कोई पुरानी हिन्दी नहीं कहता ।" परन्तु जहां तक परम्परा का प्रश्न है, निःसन्देह हिन्दी का परवर्ती साहित्य अपभ्रंश साहित्य से क्रमश: विकसित हुआ है ।" डा० प्रेमसागर ने भी लगभग इसी मत को स्वीकार किया है ।"
परन्तु हमारा मत है, हिन्दी साहित्य के श्रादिकाल की सीमा लगभग सप्तम शती से प्रारंभ मानी जानी चाहिए। प्रपभ्रंश भाषा के साहित्य को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उस समय प्रपभ्रंश के साथ ही देशी भाषा का भी प्रयोग होता था । यह भाषावैज्ञानिक तथ्य है कि जब कोई बोली साहित्य के क्षेत्र में भा जाती है तो वह भाषा बन जाती है धीर उसका स्थान उसी की नई बोली ग्रहण कर लेती है। इसी को देशी भाषा कहा जा सकता है। इस भाषा के शब्द अपभ्रंश भाषा के साहित्य में यत्र तत्र बिखरे पड़े हुए हैं। उन्हीं को हम "पुरानी हिन्दी" कह सकते हैं । राहुल सांकृत्यायन की हिन्दी काव्यधारा इस तथ्य का प्रमाण है कि हिन्दी के प्रादि-काल में किस प्रकार प्रपंभ्रंश और देशी भाषा का प्रयोग होता था । यहां हमने अपभ्रंश और पुरानी हिन्दी के विवाद में अधिक न जाकर हिन्दी के विकास में अपभ्रंश और देशी भाषा के महत्व को विशेष रूप से स्वीकार किया है
1.
हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियां, पू, 36; हिन्दी काव्यधारा, पृ, 38, 50
2. हिन्दी साहित्य का उद्भव और विकास, 1953, पृ, 16-17
3.
हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, परिशिष्ट 1, 2, 499