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भक्त कवि ने अपने माराध्य को गुण कीर्तन करके अपनी भक्ति प्रकट की है । वह पाराध्य में प्रसीम गुणों को देखता है पर उन्हें अभिव्यक्त करने में असमर्थ होने के कारण कह उठता है--
प्रभु मैं किहि विधि युति कर्रा सेरी। पावर कहत पार नहिं पावै, कहा बुद्धि है मेरी ॥ शक्र जनम भरि सहस जीम धरि तुम जस होत न पूरा । एक जीभ कैसे गुण गावे उछू कहे किमि सूरा ।। चमर छत्र सिंहासन बरनों, ये गुण तुमते न्यारे । तुम गुण कहन वचन बल नाहीं नैन गिनै किमि तारे ॥
भगवत् गुण कीर्तन से भक्त को भोग पद, राज पद, ज्ञान पद, चक्री और इन्द्र पद ही नहीं मिलते बल्कि शाश्वत पद भी मिल जाता है इसलिए विनयप्रभ उपाध्याय ने कहा है-एह माहप्प तुह सयल जगि गज्जए। उन्हें परमाराध्य भगवद् गुण कीर्तन 'पुन्य भंडार भरेसुए, मानव भव सफल करे सुए का कारण प्रतीत होता है । इस गुण कीर्तन से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है-'बांधित फल बहु दान दातार, सारद सामिण वीन" और भवबंधन क्षीण होता है-'भव बंधन खीणो समरसलीणो, ब्रह्म जिनदास पाय वंदयो ।' भट्टारक ज्ञानभूषण की दृष्टि में ये गुण भगवान में उसी प्रकार भरे हैं जैसे शरदकालीन सरोवर में निर्मल जल भरा रहता है
माहे नयन कमल दल सम किल कोमल बोलइ वाणी।
शरद सरोवर निर्मल सकल प्रकल गुण खानि ॥ भगवान् महावीर कलिकाल के समस्त पापों को नष्ट करने वाले हैं। उनका
1. वही, 45.
सीमन्बर स्वामी स्तवन, 19. मजित शांति स्तवन, जैन लोप्त संदोह, अहमदाबाद, सन् 1932. धमपालरास, मंगलाचरण, मामेर मास्व मंडार, जयपुर में सुरक्षित हस्त
लिखित प्रति. 5. मिथ्या दुकड़, 1(मंतिम) भामेर शास्त्र मंडार जयपुर की हस्तलिखित प्रति. 6. मादीश्वर फागु, 145, मामेर शास्त्र मंगर जमपुर की हस्तलिखित प्रति. 7. मनस्तमित्तनत संधि-हरिचन्द, दि. जैन बड़ा मंदिर जयपुर की हस्तलिखित
प्रति, गटका नं. 171.