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पूसरे महा अवसागर भट्टारक महीचन्द्र के शिष्य थे। उनका काल लगभग 17 'वी शती का पूर्षि निश्चित किया जा सकता है । उनके सीता हरण; चतुविशति बिनस्तवन, जिनकृशल सूरि चौपई प्रादि अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं। सीताहरण अन्य को पायोपांत पड़ने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि कवि ने यही विमल सूरि की परम्परा का अनुसरण किया है। काव्य को शायद मनोरंजन बनाने की दृष्टि से इधर-उधर के छोटे पाख्यानों को भी सम्मिलित कर दिया है। ढाल, दोहा, त्रोटक, चौपाई प्रादि छन्दों का प्रयोग किया है । हर अधिकार में छन्दों की विविधता है काव्यात्मक दृष्टि से इसमें लगभग सभी रसों का प्राचुर्य है । कवि की काव्य कुशलता शृंगार, वीर, शांत, प्रभुत, करुण आदि रसों के माध्यम से अभिव्यञ्जित हुई है । बीच-बीच में कवि ने अनेक प्रचलित संस्कृत श्लोकों को भी उद्धृत किया है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से इस अन्य का अधिक महत्व है 'फोकट' जैसे शब्दों का प्रयोग आकर्षक है । भाषा में जहां राजस्थानी, मराठी, और गुजराती का प्रभाव है वही बुन्देलखण्डी बोली से भी कवि प्रभावित जान पडता है । मराठी और गुजराती की विभक्तियों का तो कवि ने अत्यन्त प्रयोग किया है । ऐसा लगता है कि ब्रह्म जयसागर ने यह कृति ऐसे स्थान पर लिखी है जहा पर उन्हें चारों भाषाओं से मिश्रित भाषा का रूप मिला हो। भाषाविज्ञान की दृष्टि से इसका प्रकाशन उपयोगी जान पड़ता है । भाषा विज्ञान के अतिरिक्त मूल-कथा के पोषण के लिए प्रयुक्त विभिन्न पाख्यानों कायालेखन भी इसकी एक अन्यतम विशेषता है ।
परिशष्ट 2
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अध्ययनगत मध्यकालीन कतिपय हिन्वी जैन कवि 1. मचलकीति
2. अजराज पाटणी अभयचन्द्र
4. अभयकुशल 5. अभयनन्दि
6. प्रानन्दधन महात्मा 7. ईश्वरसूरि
8. उदयराज जती १. कनककीर्ति
10. कनककुशल 11. कल्याणकीर्ति
12. काशीराम 13. किशनसिंह
14. कुसुचन्द्र 15. कुंवरसिंह
16. कुखलजाभ 17. कुष्णपास
18. केशव 19. शांतिरंग गणि
20. खड्मसेन 21. खुशालचन्द्र काला 22. खेत 23. गणि महानन्द
24. गुण सागर