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वाद के जाल में फंसकर यह रहस्य भावना रहस्यवाद के रूप में माधुनिक साहित्य में प्रस्फुटित हुई है। इसका वास्तविक सम्बन्ध पध्यात्मविद्या से है जो पात्म परक होती है। अन्तः साक्षात्कार केन्द्रीय तत्त्व है । अनुभूति उसका साधन है । मोक्ष उसका साध्य है जहां पात्मज्ञान के माध्यम से जिन तत्त्व पोर महंतत्व में मत भाव पैदा हो जाता है।
जैन कवि वाद के पचड़े में नहीं रहे थे तो रहस्य भावना तक ही सीमित रहे हैं । इसलिए हमने यहाँ दर्शन और काव्य की समन्वयात्मकता को माधार माना है जहां साधकों ने समरस होकर अपने भावों की अभिव्यक्ति प्रस्तुत की है। ये साधक पहले हैं, कवि वाद में हैं। जहां कहीं दार्शनिक कवि और साधक का रूप एक साथ भी दिखाई दे जाता है । वाद शैली का घोतक है और भावना अनुभूति परक है। जैन कवि भावानुभूति में अधिक जुटे रहे हैं । इसलिए हमने यहाँ 'रहस्यवाद' के स्थान पर रहस्य भावना को ही अधिक उपयुक्त माना है। रहस्य भावना के विवेचन के कारण रहस्यवाद का काव्यपक्ष भी हमारे अध्ययन की परिधि से बाहर हो गया है।
1. जो जिण सो हर्ड, सो जि हुऊ, एहड भाउ भिन्तु
जोइया, उग्णु णतन्तु एमन्तु मोक्यहो कारणि-परमात्मा सार