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________________ 252 चार अंगों में विभक्त किया गया है-मन्त्र योग, लययोग, हठयोग भौर राजयोग । बाव में सुरति योग चोर सहजयोग की भी स्थापना हुई । मध्यकालीन हिन्दी जन-जनेतर काव्य में भी योगसाधना का चित्रण किया गया है । जायसी ने प्रष्टांग योग को स्वीकार किया है । यम-नियमों का पालन करना योग है । यम पांच हैं - प्रहिसा, सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । जायसी को इन पर पूर्ण मास्था थी । 'निठुर होई जिउ बधसि परावा, हत्या केर न तोहि उस प्रावा' तथा 'राज' कहा सत्य कह सुप्रा, बिनु सन जस सेंबर कर भूना श्रादि जैसे उद्धरणों से यह स्पष्ट है । नियम के अन्तर्गत शौच, सन्तोष, तप स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान को रखा गया है। जायसी ने इन नियमो को भी यथास्थान स्वीकार किया है। जीव तत्व को ब्रह्मतत्व मे मिला देना प्रथवा श्रात्मा को परमात्मा से साक्षात्कार करा देना योग का मुख्य उद्देश्य है । इन दोनों तत्वों को साधकों और प्राचार्यों ने भिन्न-भिन्न नाम दिये हैं । जायसी ने सूर्य और चन्द्र को प्रतीक माना है । कुछ योगियों वे इड़ा-पिंगला को चन्द्र-सूर्य रूप में व्यजित किया है । नाड़ी साधना मे भी जायसी की धास्था रही है। प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नास, कूर्म, कुकर, देवदत्त और घनन्जय ये दस वायुएं नाड़ियों में होकर सूर्य तत्व को ऊर्ध्वमुखी और चन्द्रतत्व को अधोमुखी कर दोनो का मिलन कराती हैं । यही प्रजपा जाप है । जायसी अजपाजाप से सम्भवतः परिचित नहीं थे पर जप के महत्व को अवश्य जानते थे 'आसन लेइ रहा होइ तपा, पद्मावती जपा' 13 नाड़ियों में पाच नाड़ियां प्रमुख है जिनका योग साधना में अधिक महत्व महत्व हैइड़ा, पिगला, सुषुम्ना, चित्रा श्रीर ब्रह्म । कुण्डलिनी साधना के सन्दर्भ मे महामुद्रा, महार्घ निवरीत करणी भादि मुद्राये अधिक उपयोगी है । हठयोगी कुण्डलिनी का उपस्थापन करता हुआ षट्चको (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, विशुद्ध, श्राज्ञा श्रौर सहस्रार) का भेदन करता है । कुछ ग्रन्थों मे ताल, निर्वाण और प्राकाशचन्द्र को भी जोड़ दिया गया है । जायसी ने 'भवो खण्ड नव पौरी और तहं वस्त्र किवारं ' कहकर इन चक्रों पर विश्वास व्यक्त किया है । उन्होने योगी-योगनियों के स्वरूप पर भी चर्चा की है । जायसी श्रादि सूफी कवियों ने योग की शुष्कता और जटिलता को तीन प्रकार से अभिव्यक्त किया है । डॉ. त्रिगुणायत ने 'जायसी का पद्मावत' काव्य 1. 2. योग उपनिषद्, पृ. 367. जायसी ग्रन्थावली, पू. 31. 3. वही, पृ. 38. 4. बही, पू. 101.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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