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और दर्शन में जायसी के हठयोगिक रहस्यवाद के तीन रूपों को स्पष्ट किया है-1. भावना या प्रेमभाव के प्रावरण में प्रावृत्त 2. प्रकृति के प्रावरण में मावृत्त 3. जटिल अभिव्यक्ति के प्रावरण में प्रावृत्त । कुण्डलिनी के उबुद्ध और प्राणवायु के स्थिर हो जाने पर साधक शून्यपथ से अनहदनाद को सुनता है । इसके लिए काम, क्रोध, मद और लोभ मादि विकारों को दूर करना आवश्यक है।
कबीर ने भी योग साधना की है । उन्होंने "न मैं जोग चित्त लाया, बिन बराग न छूट सि काया" कहकर योग का मूल्यांकन किया है । कबीर ने हठयोगी साधना भी की। उन्होंने षट्कर्म आसन, मुद्रा, प्राणायाम और कुण्डलिनी उत्थापन की भी क्रियाये की । हठयोगी क्रियानों से मन उचट जाने पर कबीर ने मन को केन्द्रित करने के लिए लययोग की साधना प्रारम्भ की जिसे कबीर पंथ में 'शब्दसुरति-योग' कहा जाता है । सब्द को नित्य और व्यापक माना गया है । इसलिए शब्द-ब्रह्म की उपासना की गई है-'अनहद शब्द उठं झनकार, तहं प्रभु बैठे समरथ मार ।' इसकी सिद्धि के लिए ज्ञान के महत्व को भी स्पष्ट किया गया है। कबीर ने ध्यान के लिए अजपा जाप और नामजप को भी स्वीकार किया है। उन्होंने बहिमुंखी वृत्तियों को अन्तर्मुखी कर उलटी चाल से ब्रह्म को प्राप्त करने का प्रयत्न
1. सुरुज चांद के कथा जो कहेऊ । प्रेम कहानी लाइ चित्त बाहेऊ, जायसी पौर
उनका पद्मावत, बनिजारा खण्ड-रामचन्द्र शुक्ल
'चांद के रंग में सूरज रंग गया', वही रत्नसेन भेंट खण्ड । 2. गढ़ पर नीर खीर दुइ नदी । पनिहारी जैसे दुरपदी ॥
और कुंड एक मोती चुरू । पानी अमृत, कीच कपूरू । 3. नौ पोरी तेहि गढ़ मझियारा । प्रो तह फिरहिं पांच कोटवारा।
दसवं दुपार गुपुत एक ताका । आगम चढ़ाव, बाट सुठि बांका ॥ भेदै जाइ सोइ वह घाटी। जो लहि भेद, चढ होई चांटी। गढ़ तर कुंड, सुरंग तेहि माहां। तहं वह पंथ कहीं तोहि पाहाँ । चोर बैठ जस सैघि संवारी । जुम्रा पैंत जस लाव जुपारी ।।
जस मरजिया समुद्र धंस, हाथ पाव तब सीप । ढदि लेइ जो सरग-दुपारी चढे सौ सिंहलद्वीप ।। वही, पार्वती
महेश खंड' 4. कबीर ग्रन्थावली, पृ. 301. 5. वही, पृ. 198. 6. वही, पृ. 277.