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हिन्दी कवि के रूम में भरतेश्वर बाहुबली के रचयिता (सं. 1241) शालिभद्र सूरि को स्वीकार किया जाने लगा है। यह रचना पश्चिमी राजस्थानी की है जिसमें प्राचीन हिन्दी का रूप उद्घाटित हुआ है। इसमें 203 छन्द है। कथा का विभाजन वस्तु, ठवणि, पउल, चूटक में किया गया है । नाटकीय संवाद सरस, सरल पोर प्रभावक हैं । भाषा की सरलता उदाहरणीय है
चन्द्र धूड विज्जाहर राउ, तिरिण वातई मनि विहीय विसाउ । हा कुल मण्डण हा कृलवीर, हा समरंगणि साहस धीर ॥ ठवणि 13 ॥
जिनदत्त सूरि के चर्चरी उपदेश, रसावनरास और काल स्वरूप कुलकम अपभ्रंश की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं । कवि प्रासिग का जीवदया रास (वि. सं. 1257, सन् 1200) यद्यपि प्राकार में छोटा है पर प्रकार की दृष्टि से उपेक्षणीय नहीं कहा जा सकता। इसमें संसार का सुन्दर चित्रण हुमा है। इन्हीं कवि का चन्दनवाला रास है जिसमें उसने नारी की संवेदना को बड़े ही सरस ढंग से उकेरा है, अभिव्यक्त किया है । भाषा की दृष्टि से देखिये
मुभर भोली ता सुकुमाला, नाउ दीन्हु तसु चंदरण बाला ॥ 21 ॥
आघो खंडा तप किया, किव प्राभइ बह सुकाव निहाणु ।। 26 ।।
विजयसेन सरि का रेवंतगिरि रास (वि. सं. 1287, सन् 1230) ऐतिहासिक रास है जिसमें रेवंतगिरि जैन तीर्थ यात्रा का वर्णन है। यह चार कडवों में विभक्त है । इसमें वस्तुपाल, तेजपाल के संघ द्वारा तीर्थकर नेमिनाथ की मूर्ति-प्रतिष्ठा का गीतिपरक वर्णन है । भाषा प्राजल और शैली अाकर्षक है । इसी तरह सुमतिगणि का नेमिनाथ रास (सं 1295), देवेन्द्र सूरि का गयसुकुमाल रास (सं. 1300), पल्हरण का माबुरास (13 वीं शती), प्रज्ञातिलक का कल्ली रास (सं. 1363), अम्बदेव का समरा रासु (सं. 1373) शालिभद्र सूरि का पंचपांडव चरित रास (स. 1410), विनयप्रभ का गौतम स्वामी रास (सं. 1412), देव. प्रभ का कुमारपाल रास (सं. 1450), मादि कृतियां विशेष उल्लेखनीय हैं। इस काल की कुछ फागु कृतियां भी इसमें सम्मिलित की जा सकती हैं। इन फागु कृतियों में जिनपद्म की सिरि थूलिभद्द फागु (सं. 1390), राजशेखर सूरि का नेमिनाथ फागु (सं. 1405), कतिपय अज्ञात कवियों की जिन चन्द्र सूरि फागु (सं. 1341), व वसन्त विलास फागु सं. 1400) का भी उल्लेख करना प्रावश्यक है। भाषा की दृष्टि यहां देखिए कितना सामीप्य है
सोम मरुव धूव परिणाविय, जायवि तहि जन्न तह माविय । नच्चइ हरिसिय वजहिं तूरा, देवइ ताम्ब मपोरह पूरा ॥
गय सुकुमाल रास | 22 । मेरु ठामह न चलइ जाव, जां चंद दिवापर । सेषुनागु जां घरह भूमि जो सासई सायर ॥