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धम्मह विसउ जो जगह मही, पौर निश्चल होए। कूमरउ रायहं तरउ रासु ता नंदउ लोए ॥
-कुमारपाल रास प्रादिकाल की इस भाषिक पौर साहित्यिक प्रवृत्ति ने मध्यकालीन कवियों को बेहद प्रभावित किया । विषय, भाषा शैली और परम्परा का अनुसरण कर उन्होंने माध्यास्मिक और भक्ति मूलक रचनाएं लिखीं। इन रचनामों में उन्होंने मादिकालीन काव्य शैलियों और काव्य रूडियों का भी भरसक उपयोग किया। हिन्दी के प्राण्यानक काव्य अपभ्रंश साहित्य में प्रथित लोक कथानों पर खड़े हुए हैं। देवसेन, जोइन्दु और रामसिंह जैसे रहस्यवादी जैन कवियों के प्रभाव को हिन्दी संत साहित्य पर आसानी से देखा जा सकता है । भाषा, छन्द, विधान और काव्य रूपों की दृष्टि से भी अपभ्रश काव्यमत वस्तु वर्णन और प्रकृति चित्रण उत्तरकालीन हिन्दी कवियों के लिए उपजीवक सिद्ध हुये हैं । जायसी पोर तुलसी पर उनका अमिट प्रभाव दृष्टव्य है । छन्दविधान, काव्य और कथानक रूढ़ियों के क्षेत्र में यह प्रभाव अधिक देखा जाता है । प्रभाव ही क्या प्रायः समूचा हिन्दी जैन साहित्य अपभ्रंश साहित्य की रूढ़ियों पर लिखा गया है।
इस प्रकार अपभ्रंश और अवहट्ट से संक्रमित होकर मादिकालीन हिन्दी जैन साहित्य प्राचीन दाय के साथ सतत बढ़ता रहा और मध्यकालीन हिन्दी जैन साहित्य को वह परम्परा सौंप दी । मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने अपभ्रंश भाषा और साहित्य की लगभग सभी विशेषतामों का प्राचमन किया और उन्हें सुनियोजित ढंग से संवारा, बढ़ाया और समृद्ध किया । इस प्रवृत्ति में जैन कवियों ने मादान-प्रदान करते हुए कतिपय नये मानों को भी प्रस्तुत किया है जो कालान्तर में विधा के रूप में स्वीकृत हुए हैं। यही उनका योगदान है।
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