________________
तृतीय परिवर्त
मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियां
fare पृष्ठों में हमने हिन्दी के मध्ययुग का काल क्षेत्र घोर सांस्कृतिक तथा भाषिक पृष्ठभूमि का संक्षिप्त अवलोकन किया । इस सन्दर्भ में विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि इतिहासकारों ने हिन्दी साहित्य के मध्यकाल को पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल ) और उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल ) के रूप में वर्गीकृत करने का प्रयत्न किया है। चूंकि भक्तिकाल में निर्गुण और सगुण विचारधारायें समानान्तर रूप से प्रवाहित होती रही हैं तथा रीतिकाल में भक्ति सम्बन्धी रचनायें उपलब्ध होती हैं, अतः इस मध्यकाल का धारागत विभाजन न करके काव्य प्रवृत्यात्मक वर्गीकरण करना अधिक सार्थक लगता है। जैन साहित्य का उपर्युक्त विभाजन और भी सम्भव नहीं क्योंकि वहां भक्ति से सम्बद्ध अनेक धारायें मध्यकाल के प्रारम्भ से लेकर अन्त तक निर्वाध रूप से प्रवाहित होती रही हैं। इतना ही नहीं, भक्ति का काव्य-स्रोत जैन प्राचार्यों और कवियों की लेखनी से हिन्दी के श्रादिकाल में भी प्रवाहित हुआ है। अतः हिन्दी के मध्ययुगीन जैन काव्यों का वर्गीकरण कलात्मक न होकर प्रवृत्यात्मक किया जाना अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है ।
जैन कवियों और प्राचार्यों ने मध्यकाल की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में पेठकर अनेक साहित्यिक विधाओं को प्रस्फुटित किया है । उनकी इस प्रभिव्यक्ति को हम निम्नांकित काव्य रूपों में वर्गीकृत कर सकते हैं ।
1. प्रबन्ध काव्य --- महाकाव्य, खण्डकाव्य, पुराण, कथा चरित, रासा, संधि आदि ।
2. रूपक काव्य --- होली, विवाहलो, चेतनकर्मचरित प्रादि ।
3. अध्यात्म और भक्तिमूलक काव्य-स्तवन, पूजा, चौपई, जयमाल, चांचर, फागु, चुनड़ी, वेलि, संख्यात्मक, बारहमासा भादि ।