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है । अनेकान्त की चिर नूतन किरणों का स्वच्छ प्रकाश फैल अनुपम प्रद्भुत ज्ञेयाकार विकसित हो जाता है, मानन्द कन्द में मम बस जाता है तथा उस सुख के सामने अन्य सुख वासे से हैं। इसलिए वे अनादिकालीन प्रविद्या को सर्वप्रथम दूर करना चेतना का अनुभव घट-घट में अभिव्यक्त हो सके । द्यानतराय ने भी प्रात्मानुभव को
चाहते हैं ताकि
तावस्था की प्राप्ति और भववाधा दूर करने का उत्तम साधन माना है । स्व-पर विवेक तथा समता रस की प्राप्ति इसी से होती है ।" बनारसीदास प्रादि कवियों ने भेदविज्ञान की बात कही है पर सन्तों ने उसे प्रात्मसाक्षात्कार की भाषा दी है'प्राण परीचं प्रारण आपहुं भ्रापहि जाने' ।' भेदविज्ञान होने पर ही वृत्तियाँ अन्तमुखी हो जाती हैं— 'वस्तु विचारत घ्यावतं मन पाव विश्राम। दादू ने इसी को 'ब्रह्मदृष्टि परिचय भया तब दादू बैठा राखि" कहा और सुन्दरदास ने 'साक्षाकार याही साधन करने होई, सुन्दर कहत द्वैत बुद्धि कू निवारिये' माना है ।" इससे स्पष्ट है कि भवमूलक रहस्यभावना में साधक की स्वानुभूति को सभी प्राध्यात्मिक सन्तों ने स्वीकार किया है।
भावमूलक रहस्यभावना का सम्बन्ध ऐसी साधना से है जिसका मूल उद्देश्य प्राध्यात्मिक चिरन्तन सत्य और तज्जन्य अनुभूति को प्राप्त करना रहा है। इसकी प्राप्ति के लिए साधक यम-नियमों का तो पालन करता ही है पर उसका प्रमुख साधन प्रेम या उपासना रहता है। उसी के माध्यम से वह परम पुरुष, प्रियतम, परमात्मा के साथ तादात्म्य स्थापित करता है और उससे भावात्मक ऐक्यानुभुति की क्षमता पैदा करता है। इस साधना में साधक के लिए गुरु का विशेष सहारा मिलता है जो उसकी प्रसुप्त प्रेम भावना को जाग्रत करता है । प्रेम अथवा रहस्य भावना जाग्रत हो जाने पर साधक दाम्पत्यमूलक विरह से संतप्त हो उठता है और फिर उसकी प्राप्ति के लिए वह विविध प्रकार की सहज योगसाधनामों का अवलम्बन लेता है ।
1. देखिये, इसी प्रबन्ध का चतुर्थ परिवर्त, पृ. 81-86
2. अध्यात्म पदावली, पृ. 359.
3.
दादूबानी, भाग 1. पू. 63
4.
सुन्दर विलास, पृ. 159.
5. नाटक समयसार, 17.
जाता है, सत्तारूप
मन्द अमूर्त भात्मा
प्रतीत होने लगते
6. दादूवानी, भाग 1, पृ. 87.
7.
सुन्दर विलास, पृ. 101