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'जियो तोहि समझायी सी सौ बार ।
देख संगुरु की परहित में रति हित उपदेश सुनायो सौ सौ बार । विषय मुजंग से दुखं पायो, पुनि तिनसों लपटाये ।
स्वपद विसार रच्यो पर पद में, मदरत छौं बोरायौ !!
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तन धन स्वजन नहीं है तेरे, नाहक नेह लगायो ।
क्यों न तर्ज भ्रम, चाख समामृत, जो नित संत सुहायो ॥
बहू समुझि कठिन यह तरभव, जितवृष विता गमायो ।
ते विलखें मनि डार उदधि में, दौलत को पछनायो ||
जीव के मिथ्याज्ञान की घोर विहार कर धानतराय कहे बिना नहीं रह पाते -- जानत क्यों नहि हे नर प्रातम ज्ञानी,
राग द्वेष पुद्गल की संगति निहचे शुद्ध निशानी 12
तू
मैं मैं की भावना से क्यों प्रसित है ? संसार का हर पदार्थ क्षणभंगुर है पर अविनाशी है मैं मैं काहे करत हैं, तन घन भवन निहार । तू अविनाशी प्रातमा, विनासीत परन्तु माया मोह के चक्कर में पड़कर स्वयं की
संसार ॥
शक्ति को भूल गया है । तेरी हर श्वासोच्छवास के साथ सोहं सोहं के भाव उठते है । यही तीनों लोकों का सार है । तुम्हें तो सोहं - छोड़कर अजपाजप में लग जाना चाहिए। उदयराज जती ने प्रीति को सांसारिक मोह का कारण बताकर उससे दूर रहने का उपदेश दिया है
4.
उदराज कहैं सुरिण श्रातमा इसी प्रीति जिप करें 14
रूपचन्द ने चेतन को चतुर सुजान कहकर अपने शुद्ध वेतन्य स्वरूप को पहचानने के लिए उद्बोधित करते हैं श्रीर कहते है कि पर पदार्थ अपने कभी भी नहीं हो सकते - 'रूपवन्द चितचेति नर, प्रपनी न होइ निदान' (हिन्दी पद संग्रह,
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2.
3. सोहं सोहं होत नित, सांस उसास मंझार |
aret ग्ररथ विचारिए, तीन लोक में सार ।
जैसो तसो प्राप, थाप निहपै तजि सोहं ।
अजपा जाप संभार, सार सुख सोहं सोहं | धर्मविलास, पू. 65.
अध्यात्मपदावली, 12, पृ. 342.
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हिन्दी पद संग्रह, पृ. 115.
भजत छत्तीसी, 37, राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की. भाग 2, परिशिष्ट 1, पृ. 142-3 मिश्रबन्धु-व364, हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 151.