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अनाचार को ही नर्म राय-पाप कर्म के बकर में मनाजमान पर कसा हो मुनाद बेह को जलाकर ही धर्म मानने वाल का प्रवचन करते हुए भी शास्त्र को नहीं सक्यते । नरदेह पाने से पंडित पहनाने से वीर्ष स्थान करने से, द्रव्यार्जन करने से छत्रधारी होने से, केश के मुझने से और भेष धारण करने से क्या तात्पर्य, यदि मारम प्रकाशात्मक ज्ञान नहीं हुआ। शानान किये बिना ही अनेक प्रकार के साधु विविध सापना करते हुए दिखाई देते हैं। उनमें कुचकनफटा, जटाधारी, भस्म लपेटे, चेरियों से घिरे धूम पायी साधु है. जो कामवासना से पीड़ित और विषयभोगों में लीन हैंके फिर कानफटा, केऊ पीस धरै जटा, .
के लिए भस्मवटा भूले भटकत हैं। केऊ तज जांहि अटा, केऊ धेरें चेरी चटा,
केऊ पढ़े पट केऊ घूम गटकत हैं। के तत किये लटा, केऊ महादीसें कटा,
__ केऊ तरतटा केक रसा लटकत है। भ्रम भावते न हटा हिये काम नाहीं घटा,
विर्ष सुख रटा साथ हाथ पटकत हैं 1100 कान फटाकर योगी बन जाते हैं, कंधे पर झोली लटका लेते हैं, पर ब्या का विनाश नहीं करते तो ऐसे ढोंगी योगी बनने का कोई फल नहीं । यति मा पर इन्द्रियों पर विजय नहीं पायी, पांचों भूतों को मारा नहीं, जीव मजीव को समझा नहीं, वेष लेकर भी पराजित हुमा, वेद पढ़कर ब्राह्मण कहलाये पर बह्मदशा का शान नहीं । प्रात्म तत्त्व को समझा नहीं तो उसका क्या तात्पर्य ? बंगल जाने भस्म
1. ब्रह्मविलास, सुपंथ कुपंथ पचीसिका, 11, पृ. 182 । 2. नरदेह पाये कहा पंडित कहायेकहा,
तीरथ के न्हाये कहा तीर तो न जैहे रे। लच्छि के कमाये कहा मच्च के पाये कहा, छत्र के पराये कहा छीनतान ऐहै रे । केश के मुंगये कहा भेष के बनाये कहा, जोबन के प्राये कहा जराह न खेह रे। भ्रम को विलास कहा दुर्जन में वास कहा, पात्म प्रकाश दिन पीछे पछित है।"
वही, अनित्य पचीसिका, पृ.114। ३. वही, सुद्धि पौषीती, 10 पृ. 1591