________________
238
में एक शुद्धात्मा है और दूसरी निम्नात्मा । माया के नष्ट हो जाने पर दोनों का द्वैतभाव नष्ट हो जाता है । वेदान्त में माया (नफस) का हनन ज्ञान से होता है पर सूफीमत में ईश्वर प्रेम से साधक उससे मुक्त होता है । जायसी ने भ्रात्मा की ज्ञानरूपता, स्व-पर-प्रकाशकरूपता, ' नित्यशुद्ध, मुक्तरूपता, चैतन्य रूपता परम प्रेमास्पद रूपता, आनन्द रूपता, सदरूपता मीर सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूपता स्वीकार की है। जायसी के इस श्रात्मा के सिद्धान्त पर वेदान्त का प्रभाव अधिक बताया जाता है । पर मुझे जैनदर्शन का भी प्रभाव दिखाई देता है ।
1
कबीर के अनुसार जीव और ब्रह्म पृथक नहीं है । वह तो अपने प्रापको भविचा 'काररणा ब्रह्म से पृथक् मानता है । अविद्या और माया के दूर होने पर जीव और ब्रह्म प्रद्वैत हो जाते हैं- 'सब घटि अंतरि तू ही व्यापक घटे सरूपं सोई । 5 मात्मज्ञान शाश्वत सुख की प्राप्ति कराने वाला है ।" सर्वव्यापक है ।' अविनाशी है, निराकार और निरंजन है । सूक्ष्मातिसूक्ष्म तथा ज्योतिस्वरूप है । 11 इसे आत्मा का परमार्थिक स्वरूप कहते हैं । उसका व्यावहारिक स्वरूप माया अथवा श्रविद्या से मात स्थिति में fदाई देखता है । वही संसार मे जन्म-मरण का कारण है । सुन्दरदास का भी यही मन्तव्य है । 22
0
सूर ने भी ब्रह्म और जीव में कोई अंतर नहीं माना। माया के कारण ही जीव अपने स्वरूप को विस्मृत हो जाता है- 'प्रापुन आपुन ही विसरयौ ।' माया के 13 दूर होने पर जीव प्रपती विशुद्धावस्था प्राप्त कर लेता है ।" तुलसी ने भी जीवात्मा
1.
2.
3.
4.
5.
6.
7.
8.
9.
19.
11.
12.
13.
14.
हिय के जोति दीप वह सूझा, जायसी ग्रन्थाबली,
वही, पृ. 50.
वही, पृ. 57.
जायसी का पद्मावत: काव्य और दर्शन, पृ. कबीर ग्रन्थावली, पृ. 105.
प्राप ही श्राप विचारिये तब कैसा होई आनंद रे, कबीर ग्रंथावली,
वही, पृ. 56.
वही, पृ. 323.
निजस्वरूप निरंजना, निराकार अपरंपार, वही, पृ. 227.
वही, पृ. 73.
वही, पृ. 73.
सतवानी संग्रह, पृ. 107.
सूरसागर, पद 369.
वही, पद, 407.
पृ. 61.
194-204.
पृ. 89.