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________________ 237 के अनुसार मास्मा स्वप्रकाशक, नित्य, शुद्ध, सत्यस्वभावी और चैतन्ययुक्त है ।। बौद्धदर्शन में प्रात्मा ने प्रध्याकृतवाद से लेकर निरामत्वाव नक की यात्रा की हैं।' जनदर्शन में प्रात्मा ज्ञानदर्शनोपयोगमयी, अमूर्तिक, कर्ता,स् वदेहपरिणामवान्, भोक्ता, संसारस्थ, सिद्ध और ऊर्ध्वस्वभावी है। जीव है सुज्ञानमयी चेतना स्वभाव धरै, जानिबौ जो देखिबौ अनादिनिधि पास है । __ अमूर्तिक सदा रहै और सौ न रूप गहै, निश्चने प्रवान जाके मातम विलास है।। व्योहारनय कर्ता है देह के प्रमान मान, भोक्ता सुम्य दुःखानि को जग में निवास है। शुद्ध है विलोके सिद्ध करम कलक विना, ऊर्द्ध को स्वभाव जाकी लोक अग्रवास है। ____मध्यकालीन हिन्दी सन्त श्रात्मा के इन्हीं विभिन्न स्वरूपों पर विचार करते रहे है । सूफी कवि जायसी के प्रात्मतत्त्व सम्बन्धी विचार वेदान्त, योग, सूफी, इस्लाम और जैन धर्म से प्रभावित रहे हैं । उसमें इन सभी सिद्धान्तों को समन्वित रूप में प्रस्तुत करने की भावना निहित थी। जायसी का ब्रह्मनिरूपण सूफियों से अधिक प्रभावित है । सूफीमत में ब्रह्म की स्थिति हृदय में मानी गयी है और जगत् उसकी प्रतिच्छाया के रूप मे दिग्वाई देता है । कवि का यह कयन दृष्टव्य है जहां वर करता है-काया उदधि सदृश है । उसी में परमात्मा रूपी प्रियतम प्रतिष्ठित है। उसी को शाश्वत माना है। प्रात्मा का साक्षात्कार अन्तर्मुखी माधना का फल है। यह प्रात्मा पिण्डस्थ मानी गई है। योग के अनुसार पिण्डस्थ प्रात्मा दो प्रकार की है-प्रातात्मा और प्राप्तव्यात्मा । सूफियों ने भी प्रात्मा के दो रूप स्वीकार किये है-नफस (मंसारी) और रूह (विवेकी)। रूह आत्मा शरीर के पूर्व विद्यमान रहती है । परमात्मा ही उसे मनुष्य शरीर में भेजता है। इस उच्चतर आत्मा के भी तीन पक्ष है-~कल्ब (दिल) रूह (जान) तथा सिरै अन्त:करण) । वहाँ सिरे ही मन्तरतम रूप है । इसी में पहुंचकर सूफी साधक आत्मा के दर्शन करते हैं। इममात्मद्वयवाद को कवि ने सूर्य-चन्द्र के प्रतीकों से अनेक स्थानो पर व्यंजित किया है। आत्मद्वय 1. प्रतस्तद्भासकं नित्य शुद्धयुक्त सत्यस्वभावं प्रत्यकः ।। चैतन्य मेवात्मभवस्त्विति वेदान्तविदनुभव: । वेदान्तसार-सं. हरियत्रा, पृ. 8. 2. बौद्ध संस्कृति का इतिहास, पृ. 88. 3. ब्रह्मविलास, द्रव्यसंग्रह, 2, पृ. 33. 4. काया उदधि चितव पिंडा पाहां । देखे रतन सौ हिरदय माहां ॥ जायसी ग्रन्थावली, पृ. 177. 5. वही, पृ. 3. 6. प्राजु सूर ससि के घर माया । ससि सूरहि जनु होइ मेरावा, वही, पृ. 123.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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