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इसी प्रकार कविवर छत्रपति ने भी संगति का माहात्म्य दिखाते हुए उसके भेद किये हैं-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य ।।
इस प्रकार मध्यकालीन हिन्दी जन साधकों ने विभिन्न उपमेयों के आधार द्गुरु और उनकी सत्सागति का सुन्दर चित्रण किया है। ये उपमेय एक दूसरे भावित करते हुए दिखाई देते हैं जो निःसन्देह सत्संगति का प्रभाव है। यहां ष्टव्य है कि जनेतर कवियों ने सत्संगति के माध्यम से दर्शन की बात अधिक की जबकि जैन कवियों ने उसे दर्शन मिश्रित रूप में अभिव्यक्त किया है।
त्मि-परमात्म-निरूपण :
प्राध्यात्मिक दार्शनिक क्षेत्र मे प्रात्मतत्त्व सर्वाधिक विवाद का विषय रहा दान्तसार, सूत्रकृतांग और दीघनिकाय में इन विवादो के विविध उल्लेख मिलते कोई शरीर और आत्मा को एक मानते है और कोई मन को प्रात्मा मानते कुछ अधिच्च-समुप्पन्निकवादी थे, कुछ अहेतुवादी थे, कुछ प्रक्रियावादी थे, कुछ वादी थे, कुछ अज्ञानवादी थे, कुछ ज्ञानवादी थे, कुछ शाश्वतवादी थे और कुछ वादी थे । ये सभी सिद्धान्त ऐकान्तिकवादी हैं । इनमे कोई भी सिद्धान्त आत्मा स्तविक स्वरूप पर निष्पक्ष रूप से विचार करते हुए नहीं दिखाई देता । वेदान्त
देखो स्वांति बून्द सीप मुख परी मोती होय : केलि में कपूर बास माहिं बसलोचना । ईख मे मधुर पुनि नीम में कटुक रस, पन्नग के मुख परी होय प्रान मोचना ।। अबुज दलनिपरि परी मोती सम दिप, तपन तबे पे परी नस कछु सोचना । उतकिष्ट मध्यम जघन्य जैसों संग मिल, तैसी फल लहै मति पौच मति पोचना ।।147।। मलय सुवास देखो निंबादि सुगन्ध करे, पारस पखान लोह कञ्चन करत है। रजक प्रसग पट समलते श्वेत कर, भेषज प्रसंग विष रोगन हरत है ॥ पंडित प्रसंग जन मूरखतें बुध कर, काष्ट के प्रसंग लोह पानी में तरत है। जैसी जाको संग ताको तसो फल प्रापति है, सज्जनप्रसंग सब दुख निवरत है ।। 148, मनमोदन पंचशती, पृ. 70-71. वेदान्तसार, पृ. 7. बौद्ध संस्कृति का इतिहास, पृ. 3-5.