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________________ 239 को परमात्मा से पृथक नहीं माना । मामा के वशीभूत होकर ही वह अपने यथार्थ स्वरूप को भूल गया। कवि का परमात्मा व्यापक है मौर वह कबीर प्रादि के समान केवल निर्गुण नहीं ही कहा, वह भी सगुण होकर भिन्न-भिन्न अवतार धारण करता है। सगुण-निर्गुण राम की शक्ति का विवेचन इस कथ्य को पुष्ट जैन सन्तों ने भी कबीर आदि सन्तों के समान प्रात्मा के निश्चय और व्यवहार स्वरूप का वर्णन किया है। जैन दर्शन का प्रात्मा निश्चय नय से शुद्ध, बुद्ध और निराकार है पर व्यवहार नय से वह शरीर प्रमाण प्राकार ग्रहण करता है, कर्ता और भोक्ता है। आत्मा और शरीर को भी वहां पृथक् माना गया है । सूफी साधकों ने प्रात्मा से परमात्मा तक पहुंचने मे चार अवस्थाओं का वर्णन किया है-शरीयत (श्रुताभ्यास), तरीकत (नामस्मरण), हकीकत (मात्मज्ञान) और मार. फत (परमात्मा में लीन)। जैनों ने आत्मा की इन्हीं अवस्थाओं को तीन अवस्थामों में अन्तर्भूत कर दिया है-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। प्रात्मा ही परमात्मा बन जाता है । इन सभी अवस्थाओं का वर्णन हम पीछे कर चुके हैं । योगीन्दु मुनि ने प्रात्मा के स्वरूप पर विचार करते हुए लिखा है कि प्रात्मा न गौर वर्ण का है, न कृष्णा वर्ण का, न सूक्ष्म है, न स्थूल है न ब्राह्मण है, न क्षत्रिय, न वैश्य है, न शूद्र, न पुरुष है, न स्त्री, न नपुंसक है, न तरुण-वृद्ध आदि । वह तो इन सभी सीमानों से परे है। उसका वास्तविक स्वरूप तो शील, तप दर्शन, ज्ञान और चारित्र का समन्वित रूप है। अप्पा गौरउ किण्हु रणवि, अप्पा रत्तु रा होइ । अप्पा सुहसु वि थूणु ण वि, रणारिणउ जाणे जोइ ।।86। अप्पा बंभणु बइसु ण वि, ण वि खत्तिउण वि सेसु । पुरिसु गाउंसउ इत्थ ण वि, रग रिणउ मुणइ असेसु ।।87।। अप्पा वन्दउ खबणु रग वि, अप्पा गुरउ ए होइ। अप्पा लिगिउ एक्कु ण वि, रण रिणउ जाणइ जोइ ॥88॥ 1. जिय जब ते हरि नै बिगान्यो। तब से गेह निज जान्यो। माया वस सरूप बिसरायो। तेहि भ्रम तें दारुन दुःख पायो । विनय. पत्रिका, 136. 2. वही, 53. 3. गीतावली, 5, 5-27
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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